पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिक्खा था, सो भी मिट गया ज़ाहिरा काग़ज़ तिरे ख़त का ग़लत बरदार है जी जले जौक़-ए-फ़ना की नातमामी पर न क्यों हम नहीं जलते, नफ़स हरचन्द आतशबार है अाग से, पानी में बुझते वक्त, उठती है सदा हर कोई दरमाँदगी में नाले से नाचार है है वही बदमस्ति-ए-हर जर्रः का ख़ुद 'श्रुज्रख्वाह जिसके जल्वे से जमीं ता आसमाँ सरशार है मुझसे मत कह, तू हमें कहता था अपनी जिन्दगी जिन्दगी से भी मिरा जी इन दिनों बेजार है आँख की तस्वीर सरनामे प खेची है, कि ता तुझ प खुल जावे, कि इसको हसरत-ए-दीदार है .. १४५ पीनस में गुजरते हैं जो कूचे से वह मेरे । कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते