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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४४

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मस्तानः तय करूँ हूँ रह-ए-वादि-ए-ख़याल
ता बाजगश्त से न रहे मुद्द'आ मुझे

करता है बसकि बाग़ में तू बेहिजाबियाँ
आने लगी है नकहत-ए-गुल से हया मुझे

खुलता किसी प क्यों, मिरे दिल का मु'आमलः
शे'रों के इन्तिखाब ने रुस्वा किया मुझे

१५१


जिन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुजरी, ग़ालिब
हम भी क्या याद करेंगे, कि ख़ुदा रखते थे

१५२


उस बज़्म में, मुझे नहीं बनती हया किये
बैठा रहा, अगर्चे इशारे हुआ किये

दिल ही तो है, सियासत-ए-दर्बो से डर गया
मैं, और जाऊँ दर से तिरे, बिन सदा किये

रखता फिरूँ हूँ, ख़िर्क़:-यो-सज्जादः रह्न-ए-मै
मुद्दत हुई है, दा'वत-ए-आब-ओ-हवा किये