पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४४

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मस्तानः तय करूँ हूँ रह-ए-वादि-ए-ख़याल ता बाजगश्त से न रहे मुद्दा मुझे करता है बसकि बारा में तू बेहिजाबियाँ आने लगी है नकहत-ए-गुल से हया मुझे खुलता किसी प क्यों, मिरे दिल का मुआमलः शेरों के इन्तिखाब ने रुस्वा किया मुझे जिन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुजरी, गालिब हम भी क्या याद करेंगे, कि ख़ुदा रखते थे उस बज़्म में, मुझे नहीं बनती हया किये बैठा रहा, अगरञः इशारे हुआ किये दिल ही तो है, सियासत-ए-दर्बो से डर गया मैं, और जाऊँ दर से तिरे, बिन सदा किये रखता फिरूँ हूँ, खिर्क:-यो- सज्जादः रह्न-ए-मै मुद्दत हुई है, दावत-ए-आब-ओ-हवा किये