पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४७

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शौक़ को यह लत, कि हरदम नालः खेचे जाइये दिल की वह हालत, कि दम लेने से घबरा जाये है दूर चश्म-ए-बद, तिरी बज़्म-ए-तरब से, वाह, वाह नरमः हो जाता है, वाँ गर नालः मेरा जाये है गरचेः है तर्ज-ए-तसाफुल, पर्द:दार-ए-राज-ए-'अिश्क, पर हम ऐसे खोये जाते हैं, कि वह पा जाये है उसकी बम आराइयाँ सुनकर, दिल-ए-रंजूर, याँ मिस्ल-ए-नक्श-ए-मुद्दा -ए-गैर बैठा जाये है होके 'आशिक्क, वह परीरुख़, र नाजुक बन गया रँग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है नक्श को उसके, मुसव्विर पर भी क्या क्या नाज हैं खंचता है जिस कदर, उतना ही खिंचता जाये है सायः मेरा, मुझसे मिस्ल-ए-दूद भागे है, असद पास मुझ पातश बजाँ के, किससे ठहरा जाये है १५५ गर्म-ए-फ़रियद रखा, शक्ल-ए-निहाली ने मुझे तब अमाँ हिज्र में दी, बर्द-ए-लियाली ने मुझे