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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४७

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शौक़ को यह लत, कि हरदम नालः खेंचे जाइये
दिल की वह हालत, कि दम लेने से घबरा जाये है

दूर चश्म-ए-बद, तिरी बज़्म-ए-तरब से, वाह, वाह
नग्म हो जाता है, वाँ गर नालः मेरा जाये है

गरचेः है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल, पर्द:दार-ए-राज़-ए-'अिश्क़,
पर हम ऐसे खोये जाते हैं, कि वह पा जाये है

उसकी बज़्म आराइयाँ सुनकर, दिल-ए-रंजूर, याँ
मिस्ल-ए-नक़्श-ए-मुद्द'आ-ए-गैर बैठा जाये है

होके 'आशिक़, वह परीरुख़, और नाज़ुक बन गया
रँग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है

नक़्श को उसके, मुसव्विर पर भी क्या क्या नाज़ हैं
खेंचता है जिस क़दर, उतना ही खिंचता जाये है

सायः मेरा, मुझसे मिस्ल-ए-दूद भागे है, असद
पास मुझ आतश बजाँ के, किससे ठहरा जाये है

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गर्म-ए-फ़रियद रखा, शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
तब अमाँ हिज्र में दी, बर्द-ए-लियाली ने मुझे