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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६

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किया गया है वह धरती का अंगराग बन गया है)।

निराशा का स्वर ग़ालिब की अनगिनत ग़ज़लों और शे'रों में मिलता है। वह उसकी अत्यंत सहज और प्रभावशाली रचनाएँ हैं जो दिल से एक चीख बनकर बाहर निकली हैं (२१, १६१, १६२, १६३, २१६)। ये आहो की तरह प्रकट शृंगार से अरंजित हैं। लेकिन ग़ालिब का महान व्यक्तित्व उसकी निराशा को केवल भावुकता के स्तर से उठाकर बुद्धि और ज्ञान के स्तर पर ले आता है और ग़ालिब लड़ने के लिये अपने हथियार सम्भाल लेता है और अपनी तल्ख़ नवाई [कटु वाणी] को व्यंग में बदल देता है।

क्या वह नमरूद की खुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ(२७–६)

वह अत्यन्त कठिन अवस्था में भी जी खोल कर हँसना जानता है। इसपर ग़ालिब के अनगिनत चुटकुले और पत्र गवाह हैं कि उसने भूख, मौत, अपमान, हर चीज का सामना एक मर्दाना जहरीली हँसी से किया। व्यंग के तीर विफलता और असन्तोष के विषय में बुझाये जाते हैं और आत्मविश्वास और अहं के धनुष से फेंके जाते हैं। प्रकटतः यह खुशदिली की मामूली सी क्रिया मालूम होती है लेकिन वास्तव में वह एक ढाल थी जिसका ग़ालिब ने जमाने के वारों से बचने के लिये उपयोग किया। इस खुशदिली की छाप ग़ालिब की शा'अिरी पर पड़ रही है [८०–२, ९२–३, १०९, १२७–४, १७५, २०२, २२०]। वह व्यंग और हास्य की छलनी में ख़ून के आसुओं को छान देता है और छलनी के भीगे हुए छेदों पर असंख्य मुस्कुराते हुए होठों का भ्रम होता है।

की मिरे कत्ल के बा'द उसने जफ़ा से तौब
हाय उस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना
(१८–८)
यह फित्‍नः आदमी की खाना वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो(१२७–८)

यह बड़ा तीखा व्यंग है जो हँस-हँस कर ज़ख्म खाने का सामर्थ्य प्रदान करता है। और इस सामर्थ्य ही में ग़ालिब के आत्मसम्मान और व्यक्तित्व [INDIVIDUALITY] का भेद छुपा हुआ है जिसे ज़माने की विपत्तियो ने अहं और आत्मश्लाघा में बदल दिया—

ज़मानः सख्त कम आज़ार है, बजान-ए-असद
वगरनः हम तो तवक्को'अ ज़ियाद रखते हैं(११०)

यह अधिक मज़बूत ढाल थी। इसके बिना संसार के दुखों का सामना सम्भव नहीं था। ग़ालिब के अहं ने कभी किसी की परवा नहीं की। न प्रेम-