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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७४

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सब्जः-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई

है हवा में शराब की तासीर
बादः नोशी है बाद पैमाई

क्यों न दुनिया को हो ख़ुशी, ग़ालिब
शाह-ए-दींदार ने शिफ़ा पाई

१८३



तग़ाफुल दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़-ए-'अिज्ज'आली है
अगर पहलूतिही कीजे, तो जा मेरी भी ख़ाली है

रहा आबाद 'आलम, अह्ल-ए-हिम्मत के न होने से
भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू, मैख़ानः ख़ाली है

१८४



कब वह सुनता है कहानी मेरी
और फिर वह भी ज़बानी मेरी

ख़लिश-ए-ग़मजः-ए-ख़ूँरेज़ न पूछ
देख ख़ूँनाबः फ़िशानी मेरी