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सब्जः-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई
है हवा में शराब की तासीर
बादः नोशी है बाद पैमाई
क्यों न दुनिया को हो ख़ुशी, ग़ालिब
शाह-ए-दींदार ने शिफ़ा पाई
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तग़ाफुल दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़-ए-'अिज्ज'आली है
अगर पहलूतिही कीजे, तो जा मेरी भी ख़ाली है
रहा आबाद 'आलम, अह्ल-ए-हिम्मत के न होने से
भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू, मैख़ानः ख़ाली है
१८४
कब वह सुनता है कहानी मेरी
और फिर वह भी ज़बानी मेरी
ख़लिश-ए-ग़मजः-ए-ख़ूँरेज़ न पूछ
देख ख़ूँनाबः फ़िशानी मेरी