पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७६

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तू वह बदखू, कि तहय्युर को तमाशा जाने
ग़म वह अफ़्सानः, कि आशुफ्तः बयानी माँगे

वह तप-ए-'अिश्क़-ए-तमन्ना है, कि फिर सूरत-ए-शम्श्र
शो'लः ता नब्ज़-ए-जिगर रेशः दवानी माँगे

१८६

गुलशन को तिरी सोबत, अज बसकि ख़ुश आई है
हर गुंचे का गुल होना, आगोश कुशाई है

वाँ कुँग्गुर-ए-इस्तिग़ना, हर दम है बलन्दी पर
याँ नाले को और उल्टा, दावा-ए-रसाई है

अज़ बसकि सिखाता है राम, जन्त के अन्दाजे
जो दारा नज़र आया, इक चश्म नुमाई है

१८७

जिस जख़्म की हो सकती हो तबीर, रफू की
लिख दीजियो, यारब, उसे किस्मत में 'अदू की

अच्छा है सर अँगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नजर आती तो है, इक बूंद लहू की