पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७७

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क्यों डरते हो, 'उश्शाक़ की बे हौसलगी से
याँ तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की

दश्ने ने कभी मुँह न लगाया हो जिंगर को
खंजर ने कभी बात न पूछी हो गुलू की

सद हैफ वह नाकाम, कि इक 'उम्र से, ग़ालिब
हस्रत में रहे एक बुत-ए-'अरबदः जू की

१८८

सीमाब पुश्त गर्मि-ए-आईनः दे है, हम
हैराँ किये हुये हैं दिल-ए-बेकरार के

आगोश-ए-गुल कुशूदः बराये विदा अ है
अय 'अन्दलीब, चल, कि चले दिन बहार के

१८९

है वस्ल हिज्र, 'आलम-ए-तम्कीन-ओ-जब्त में
मा'शूक़-ए-शोख़-ओ-'आशिक-ए-दीवानः चाहिये

उस लब से मिल ही जायगा बोसः कभी तो, हाँ
शौक़-ए-फुजूल-ओ-जुरअत-ए-रिन्दानः चाहिये