पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७८

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चाहिये अच्छों को जितना चाहिये
यह अगर चाहें, तो फिर क्या चाहिये

सोह्बत-ए-रिन्दाँ से वाजिब है हज़र
जा-ए-मै अपने को खेंचा चाहिये

चाहने को तरे क्या समझा था दिल
बारे, अब इस से भी समझा चाहिये

चाक मत कर जैब बे अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये

दोस्ती का पर्दः, है बेगानगी
मुँह छुपाना हम से छोड़ा चाहिये

दुश्मनी ने मेरी खोया ग़ैर को
किस क़दर दुश्मन है, देखा चाहिये

अपनी रुस्वाई में क्या चलती है स‘अि
यार ही हँगामः आरा चाहिये

मुन्ह्सिर मरने प हो, जिसकी उमीद
नाउमीदी उस की, देखा चाहिये