पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९२

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२०७ जिबस कि मश्क-ए-तमाशा, जुनूं ‘अलामत है कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिशः, सेलि - ए - नदामत है न जानूं, क्योंकि मिटे दाग़-ए-ता'न-ए-बद अदी तुझे कि श्राइनः भी वरत:-ए-मलामत है बपेच-प्रो-ताब-ए-हवस, सिल्क-ए-'ग्राफ़ियतमत तोड़ निगाह-ए-'अिज्ज सर-ए-रिश्तः-ए-सलामत है वफ़ा मुकाबिल-ो-दावा-ए-'प्रिश्न बेबुनियाद जुनूंन-ए-साख़्तः-ो-फरल-ए-गुल क़यामत है . लारार इतना हूँ, कि गर तू बड़म में जा दे मुझे मेरा जिम्मः, देखकर गर कोई बतला दे मुझे क्यात अज्जुब है, कि उसको देखकर आजायेरम वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे मुँह न दिखलावे, न दिखला, पर बअन्दाज़-ए-'अिताब खोलकर परदः, जरा आँखें ही दिखला दे मुझे