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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९२

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२०७

ज़िबस कि मश्क-ए-तमाशा, जुनूँ 'अलामत है
कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिशः, सेलि-ए-नदामत है

न जानूँ, क्योंकि मिटे दाग़-ए-ता'न-ए-बद 'अह्दी
तुझे कि आइनः भी वरत:-ए-मलामत है

बपेच-ओ-ताब-ए-हवस, सिल्क-ए-'आफ़ियतमत तोड़
निगाह-ए-'अिज्ज सर-ए-रिश्तः-ए-सलामत है

वफ़ा मुक़ाबिल-ओ-दा'वा-ए-'अश्क़ बेबुनियाद
जुनूँन-ए-साख़्तः-ओ-फ़स्ल-ए-गुल क़यामत है

२०८



लाग़र इतना हूँ, कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मः, देखकर गर कोई बतला दे मुझे

क्यात'अज्जुब है, कि उसको देखकर आजाये रह्म
वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे

मुँह न दिखलावे, न दिखला, पर बअन्दाज़-ए-'अिताब
खोलकर परदः, ज़रा आँखें ही दिखला दे मुझे