पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९५

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न कहियो ता‘न से फिर तुम, कि, हम सितमगर हैं
मुझे तो ख़ू है, कि जो कुछ कहो, बजा, कहिये

वह नेश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यों न आश्ना कहिये

नहीं ज़रि‘अः - ए - राहत, जराहत -ए- पैकाँ
वह ज़ख़्म-ए-तेग़ है, जिसको कि दिलकुशा कहिये

जो मुद्द‘अी बने, उसके न मुद्द‘अी बनिये
जो नासजा कहे, उस को न नासज़ा कहिये

कहीं हक़ीक़त-ए-जाँकाहि-ए-मरज लिखिये
कहीं मुसीबत -ए- नासाज़ि-ए-दवा कहिये

कभी शिकायत-ए-रँँज-ए-गिराँ नशीं कीजे
कभी हिकायत-ए-सब्र-ए-गुरेज़ पा कहिये

रहे न जान, तो क़ातिल को ख़ूँ बहा दीजे
कटे ज़बान, तो खंजर को मर्हबा कहिये

नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानि-ए-रविश-ओ-मस्ति-ए-अदा कहिये

नहीं बहार को फ़ुर्सत, न हो, बहार तो है
तरावत-ए-चमन-ओ-ख़ूबि -ए- हवा कहिये