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मंज़ूर थी यह शक्ल, तजल्ली को नूर की
क़िस्मत खुली तिरे क़द-ओ-रुख से ज़ुहूर की

इक ख़ूँ चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाव हैं
पड़ती है आँख, तेरे शहीदों प, हूर की

वा‘अिज न तुम पियो, न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की

लड़ता है मुझसे हश्र में क़ातिल, कि क्यों उठा
गोया, अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर की

आमद बहार की है, जो बुलबुल है नाग़्म सँज
उड़ती सी इक ख़बर है, ज़बानी तुयूर की

गो वाँ नहीं, प वाँ के निकाले हुये तो हैं
का‘बे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की

क्या फ़र्ज़ है, कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

गर्मी सही कलाम में, लेकिन न इस क़दर
की जिससे बात, उसने शिकायत जुरूर की