यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ख़ूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं, अय मर्ग
रहने दे मुझे याँ, कि अभी काम बहुत है
होगा कोई ऐसा भी, कि ग़ालिब को न जाने
शा'अिर तो वह अच्छा है, प बदनाम बहुत है
२३४
मुद्दत हुई है यार को मेह्माँ किये हुये
जोश-ए-क़दह से, बज़्म चरागाँ किये हुये
करता हूँ जम'अ फिर, जिगर-ए-लख़्त लख़्त को
'अरसः हुआ है दा'वत-ए - मिशगाँ किये हुये
फिर वज़'-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुये हैं चाक गरीबाँ किये हुये
फिर गर्म-ए-नालःहा-ए-शरर बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किये हुये
फिर पुरसिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है 'अश्क़
सामान-ए-सद हज़ार नमकदाँ किये हुये
फिर भर रहा है ख़ामः-ए-मिशगाँ, बख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन तराज़ि-ए-दामाँ किये हुये