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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१२

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ख़ूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं, अय मर्ग
रहने दे मुझे याँ, कि अभी काम बहुत है

होगा कोई ऐसा भी, कि ग़ालिब को न जाने
शा'अिर तो वह अच्छा है, प बदनाम बहुत है

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मुद्दत हुई है यार को मेह्माँ किये हुये
जोश-ए-क़दह से, बज़्म चरागाँ किये हुये

करता हूँ जम'अ फिर, जिगर-ए-लख़्त लख़्त को
'अरसः हुआ है दा'वत-ए - मिशगाँ किये हुये

फिर वज़'-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुये हैं चाक गरीबाँ किये हुये

फिर गर्म-ए-नालःहा-ए-शरर बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किये हुये

फिर पुरसिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है 'अश्क़
सामान-ए-सद हज़ार नमकदाँ किये हुये

फिर भर रहा है ख़ामः-ए-मिशगाँ, बख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन तराज़ि-ए-दामाँ किये हुये