सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


बाहम दिगर हुये हैं दिल-ओ-दीदः फिर रक़ीब
नज़्ज़ारः- ओ - खयाल का सामाँ किये हुये

दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाये है
पिन्दार का सनमकदः वीराँ किये हुये

फिर शौक़ कर रहा है खरीदार की तलब
‘अर्ज-ए-मता‘-ए-‘अक्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किये हुये

दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लालः पर ख़याल
सद गुलसिताँ निगाह का सामाँ किये हुये

फिर चाहता हूँ नाम :- ए - दिलदार खोलना
जाँ नजर-ए-दिल फ़रेबि-ए- ‘अुन्वाँ किये हुये

माँगे है फिर, किसी को लब-ए-बाम पर, हवस
जुल्फ़-ए-सियाह रुख प परीशाँ किये हुये

चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरजू
सुरमे से तेज दश्न:-ए-मिश़गाँ किये हुये

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर, निगाह
चेह्रः फरोग़-ए-मै से गुलिस्ताँ किये हुये

फिर, जी में है कि दर प किसी के पड़े रहें
सर जे़र-ए-बार-ए-मिन्नत-ए-दाँर्बा किये हुये