पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१५

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गदा समझके वह चुप था, मिरी जो शामत आये
उठा, और उठके क़दम, मैं ने पास्वाँ के लिये

बकद्र-ए-शौक़ नहीं, ज़र्फ़-ए-तँगना-ए-ग़ज़ल
कुछ अर चाहिये वुस‘अत, मिरे बयाँ के लिये

दिया है ख़ल्क़ को भी, ता उसे नज़र न लगे
बना है ‘अैश तजम्मुल हुसैन खाँ के लिये

ज़बाँ प बार-ए-ख़ुदाया, यह किसका नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिये

नसीर-ए-दौलत-ओ-दीं, और मु‘अीन-ए-मिल्लत-ओ-मुल्क
बना है चर्ख-ए-बरीं जिसके आस्ताँ के लिये

जमानः ‘अहद में उसके है मह्व-ए-आराइश
बनेंगे और सितारे अब आस्माँ के लिये

वरक़ तमाम हुआ और मद्ह ब़ाक़ी है
सफ़ीन: चाहिये इस बह्र-ए-बेकराँ के लिये


अदा-ए-ख़ास से ग़ालिब हुआ है नुक्तः सरा
सलाये ग्राम है यारान-ए-नुक्तःदाँ के लिये