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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१६

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ज़मीमः

क़त'अः

गये वह दिन, कि नादानिस्तः ग़ैरों की वफ़ादारी
किया करते थे तुम तकरीर, हम ख़ामोश रहते थे

बस, अब बिगड़े प क्या शर्मिन्दगी, जाने दो मिल जाओ
क़सम लो हमसे, गर यह भी कहें, क्यों हम न कहते थे