पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१६

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ज़मीमः क़त अः गये वह दिन, कि नादानिस्तः गैरों की वफ़ादारी किया करते थे तुम तकरीर, हम ख़ामोश रहते थे बस, अब बिगड़े प क्या शर्मिन्दगी, जाने दो मिल जाओ क़सम लो हमसे , गर यह भी कहें , क्यों हम न कहते थे