पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२१७

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क़त श्रः कलकत्ते का जो जिक्र किया तू ने हमनशीं इक तीर मेरे सीने में मारा, कि हाय हाय वह सब्जःजारहा-ए-मुतरः, कि है ग़ज़ब वह नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदारा, कि हाय हाय सब आजमा वह उनकी निगाहे, कि हफ़ नज़र ताक़त रुबा वह उनका इशारा, कि हाय हाय वह मेवाहा-ए-ताजः-ओ-शारी कि वाह वाह वह बादःहा-ए-नाब-ओ-गवारा, कि हाय हाय ३ अपना अह्वाल-ए-दिल-ए-ज़ार कहूँ या न कहूँ है हया माने -ए-इज़हार कहूँ या न कहूँ नहीं करने का मैं तकरीर, अदब से बाहर मैं भी हूँ वाकिफ़-ए-असार, कहूँ या न कहूँ