पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२२०

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सरगिराँ मुझसे सुबुक रे के न रहने से रहो कि बयक जॅबिश-ए-लब मिस्ल-ए-सदा जाता हूँ ६ मैं हूँ मुश्ताक़-ए-जफ़ा , मुझ प जफ़ा और सही तुम हो बेदाद से ख़ुश, इस से सिवा और सही गैर की मर्ग का ग़म किस लिये, अय गैरत-ए-माह हैं हवस पेशः बहुत, वह न हुआ, और सही तुम हो बुत, फिर तुम्हें पिन्दार-ए-ख़ुदाई क्यों है तुम ख़ुदावन्द ही कहलाओ, ख़ुदा और सही हुस्न में हर से बढ़कर नहीं होने के कभी आपका शेवः-ो-अन्दाज -ो-अदा और सही तेरे कूचे का है माइल दिल-ए-मुज़्तर मेरा का बः इक और सही, निब्लः नुमा और सही कोई दुनिया में मगर बारा नहीं है, वा अिज़ खुल्द भी बारा है, खैर आब-ओ-हवा और सही क्यों न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिलालें, यारब सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़जा और सही