पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२२१

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मुझको वह दो, कि जिसे खाके न पानी माँD जह कुछ और सही, ग्राब-ए-बक़ा और सही मुझसे, ग़ालिब, यह 'अलाई ने ग़ज़ल लिखवाई एक बेदाद गर-ए-रज फ़िज़ा और सही है ग़नीमत, कि बउम्मीद गुजर जायगी ‘झुम्र न मिले दाद, मगर रोज-ए-जजा है तो सही दोस्त गर कोई नहीं है, जो करे चारःगरी न सही, एक तमन्ना-ए-दवा है तो सही गैर से, देखिये क्या खूब निभाई उसने न सही हमसे, पर उस बुत में वफ़ा है तो सही कभी आजायेगी, क्यों करते हो जल्दी, ग़ालिब शोहः-ए-तेजि-ए-शमशीर-ए-कजा है तो सही अब रोता है, कि बज्म-ए-तरब अामादः करो बळ हँसती है, कि फुर्सत कोई दम है हमको