यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मुझको वह दो, कि जिसे खाके न पानी माँगूँ
ज़ह्र कुछ और सही, आब-ए-बक़ा और सही
मुझसे, ग़ालिब, यह 'अलाई ने ग़ज़ल लिखवाई
एक बेदाद गर-ए-रँज फ़िज़ा और सही
७
है ग़नीमत, कि बउम्मीद गुजर जायगी ‘अम्र
न मिले दाद, मगर रोज़-ए-जज़ा है तो सही
दोस्त गर कोई नहीं है, जो करे चारःगरी
न सही, एक तमन्ना-ए-दवा है तो सही
गैर से, देखिये क्या ख़ूब निभाई उसने
न सही हमसे, पर उस बुत में वफ़ा है तो सही
कभी आजायेगी, क्यों करते हो जल्दी, ग़ालिब
शोह्र:-ए-तेजि-ए-शमशीर-ए-क़ज़ा है तो सही
८
अब्र रोता है, कि बज़्म-ए-तरब आमादः करो
बर्क़ हँसती है, कि फ़ुर्सत कोई दम है हमको