पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/३२

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सताइशगर है ज़ाहिद इस क़दर, जिस बाग़-ए-रिज़्वाँ का
वह इक गुलदस्तः है हम बेख़ुदों के ताक़-ए-निसियाँ का

बयाँ क्या कीजिये बेदाद-ए-काविशहा-ए-मिश़गाँ का
कि हरइक क़तर:-ए-ख़ूँ दानः है तस्बीह-ए-मरजाँ का

न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने‘अ, मेरे नालों को
लिया दाँतों में जो तिन्का, हुआ रेशः नयसताँ का

दिखाऊँगा तमाशा, दी अगर फ़ुर्सत ज़माने ने
मिरा हर दाग़-ए-दिल, इक तुख़्म है सर्व-ए-चराग़ाँ का

किया आईन:-खाने का वह नक़्श, तेरे जल्वे ने
करे, जो परतव-ए-ख़ुर्शीद, ‘आलम शबनमिस्ताँ का

मिरी ता‘मीर में मुज़्मर, है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बर्क़-ए-खरमन का, है ख़ून-ए-गर्म देह्क़ाँ का

उगा है घर में हर सू सब्ज़:, वीरानी तमाशा कर
मदार, अब खोदने पर घास के, है मेरे दर्बाँ का

खमोशी में निहाँ, ख़ूँगश्तः लाखों आरजूयें हैं
चराग़-ए-मुर्दः हूँ, मैं बेज़बाँ, गोर-ए-ग़रीबाँ का