पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हज़रत-ए-नासेह गर आयें, दीदः-ओ-दिल फर्श-ए-राह कोई मुझको यह तो समझादो, कि समझायेंगे क्या आज वाँ तेरा-ो-कफ़न बाँधे हुये जाता हूँ मैं 'श्रुज्र मेरे क़त्ल करने में वह अब लायेंगे क्या गर किया नासेह ने हम को कैद, अच्छा , यों सही यह जुनून-ए- 'अिश्क के अन्दाज छुट जायेगे क्या खान: जाद-ए-जुल्फ हैं, जंजीर से भागेंगे क्यों हैं गिरफ्तार-ए-वफ़ा , जिन्दाँ से घबरायेंगे क्या है अब इस म अमूरे में क्रेह्त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त, असद हम ने यह माना , कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या यह न थी हमारी किस्मत, कि विसाल-ए-यार होता । अगर और जीते रहते, यही इन्तिजार होता तिरे व अदे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर 'एतिबार होता