सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हज़रत-ए-नासेह गर आयें, दीदः-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझको यह तो समझादो, कि समझायेंगे क्या

आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बाँधे हुये जाता हूँ मैं
'अज़ मेरे क़त्ल करने में वह अब लायेंगे क्या

गर किया नासेह ने हम को क़ैद, अच्छा, यों सही
यह जुनून-ए-'अिश्क के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या

खान: ज़ाद-ए-ज़ुल्फ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, जिन्दाँ से घबरायेंगे क्या

है अब इस म'अमूरे में क़ेह्त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त, असद
हम ने यह माना , कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या

२१


यह न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता।
अगर और जीते रहते, यही इन्तिजार होता

तिरे व'अदे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर 'एतिबार होता