पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/४२

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तिरी नाज़ुकी से जाना, कि बंधा था ‘अेह्द बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

यह कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त, नासेह
कोई चारः साज होता, कोई ग़मगुसार होता

रग-ए-संग से टपकता, वह लहू, कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, यह अगर शरार होता

ग़म अगरचे: जाँगुसिल है, प कहाँ बचें, कि दिल है
राम-ए-‘अिश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुये मरके हम जो रुस्वा, हुये क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ः उठता, न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता, कि यगानः है वह यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दुचार होता

यह मसाइल-ए-तसव्वुफ़, यह तिरा बयान, ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बादःख़्वार होता