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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/४३

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हवस को है निशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या।

तजाहुल पेशगी से मुद्दा‘आ
कहाँ तक,अय सरापा नाज़,क्या,क्या

नवाजिशहा-ए-बेजा, देखता हूँ
शिकायतहा-ए-रंगी का गिला क्या

निगाह-ए-बेमहाबा चाहता हूँ
तगाफ़ुलहा-ए-तमकीं आज़मा क्या

फरोग़-ए-शो‘अलः-ए-ख़स यक नफस है
हवस को पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा क्या
         
नफस,मौज-ए-मुहीत-ए-बेखुदी है
तगाफ़ुलहा-ए-साक़ी का गिला क्या

दिमाग़-ए-‘अित्र-ए-पैराहन नहीं है
राम-ए- आवारगीहा-ए- सबा क्या
          
दिल-ए-हर क़तर:है साज़-ए-अनल बह्र
हम उसके हैं; हमारा पूछना क्या