पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५८

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दरिया-ए-म पासी, तुनुक अाबी से, हुआ ख़ुश्क मेरा सर-ए-दामन भी, अभी तर न हुआ था जारी थी असद, दारा-ए-जिगर से मिरे तहसील आतशकदः, जागीर-ए-समन्दर न हुआ था शब, कि वह मजलिस फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था रिश्तः-ए-हर शमश्र, ख़ार-ए-किसवत-ए-फ़ानूस था मशहद-ए-'आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना किसकदर, यारब, हलाक-ए-हसरत-ए-पाबोस था हासिल-ए-उल्फ़त न देखा, जुज शिकस्त-ए-आरजू दिल बदिल पैवस्तः, गोया इक लब-ए-अफ़सोस था क्या कहूँ बीमारि-ए-राम की फ़रारात का बयाँ जो कि खाया खून-ए-दिल, बेमिन्नत-ए-कीमूस था आईनः देख, अपना सा मुँह ले के रह गये । साहब को, दिल न देने प कितना गुरूर था