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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५९

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क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये
उसकी ख़ता नहीं है, यह मेरा क़ुसूर था

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अज़्र-ए-नियाज़-ए-'अश्क के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल प नाज़ था मुझे, वह दिल नहीं रहा

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुये
हूँ शम'-ए-कुश्तः, दर ख़ुर-ए-महफिल नहीं रहा

मरने की, अय दिल, और ही तदबीर कर, कि मैं
शायान-ए-दस्त-ओ-बाजु-ए-क़ातिल नहीं रहा

बर रु-ए-शश जिहत, दर-ए आईनः बाज़ है
याँ इम्तियाज़-ए-नाक़िस-ओ-कामिल नहीं रहा

वा कर दिये हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
गैर अज़ निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए-सितमहा-ए-रोज़गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफिल नहीं रहा

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गई, कि वाँ
हासिल, सिवाय हसरत-ए-हासिल नहीं रहा