पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५९

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क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये उसकी ख़ता नहीं है, यह मेरा कुसूर था ४२ ४२ अर्ज-ए-नियाज़-ए-'निश्क के काबिल नहीं रहा जिस दिल प नाज़ था मुझे, वह दिल नहीं रहा । जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुये हूँ शम-ए-कुश्तः , दर खुर-ए-महफिल नहीं रहा मरने की, अय दिल, और ही तदबीर कर, कि मैं शायान-ए-दस्त-ओ- बाजु-ए-क़ातिल नहीं रहा बर रु-ए-शश जिहत, दर-ए आईनः बाज है याँ इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-कामिल नहीं रहा वा कर दिये हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न गैर अज निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा गो मैं रहा रहीन-ए-सितमहा-ए-रोज़गार लेकिन तिरे ख़याल से गाफिल नहीं रहा दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गई, कि बाँ हासिल, सिवाय हसरत-ए-हासिल नहीं रहा