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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/६८

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मुँद गई, खोलते ही खोलते आँखें, ग़ालिब
यार लाये मिरी बालीं प उसे, पर किस वक़्त

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आमद-ए-खत से हुआ है सर्द जो, बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम'-ए-कुश्तः था, शायद खत-ए-रुख़सार-ए-दोस्त

अय दिल-ए-ना 'आक़िबत अन्देश ज़ब्त-ए-शौक़ कर
कौन ला सकता है ताब-ए-जल्वः-ए-दीदार-ए-दोस्त

ख़ानः वीराँ साज़ि-ए-हैरत तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम, हूँ रफ़्तः-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त

'अिश्क़ में, बेदाद-ए-रश्क-ए-ग़ैर ने मारा मुझे
कुश्तः-ए-दुश्मन हूँ आख़िर, गरचेः था बीमार-ए-दोस्त

चश्म-ए-मा रौशन, कि उस बेदर्द का दिल शाद है
दीदः-ए-पुरख़ूँ हमारा, साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त

ग़ैर, यों करता है मेरी पुरसिश, उसके हिज्र में
बे तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़मख्वार-ए-दोस्त