ने पानी पी लिया। वैसे दरिया ने स्वयं न किसी को डुबोना चाहा और न पानी पिलाना चाहा। वह अपने आप में लीन है। क्रिया और प्रतिक्रिया उसकी तरंगे है जिनसे आज कल और कल आज बन रहा है-
है तिलिस्म-ए-दहर में सद हश्र-ए-पादाश-ए-'अमल
आगही ग़ाफ़िल, कि यक इमरोज बे फ़र्दा नहीं (जमीमः २५)
वहदत-ए-वुजूद (विश्वदेवतावाद) की सीमाएँ कही तो वेदात से जा मिलती है और कहीं नौफलातूनियत (NEO PLATONISM) से । यह दर्शन जात- ए-मुत्लक (ब्रह्म), नफ़ि-ए-सिफ़ात (निर्गुणत्व), और संसारत्याग से लेकर उपमाओ से आरोपित और गुणो से सजी हुई जात (ईश्वर) के विचार तक फैला हुआ है, और जब इसमें ईरानी और तातारी पैगेनिज्म (कुफ़्र) का सम्मिश्रण हो जाता है तो आनन्दप्राप्ति का पहलू भी पैदा हो जाता है। और अब यह अपने अपने साहस पर निर्भर है कि मनुष्य इस मंजिल पर पहुंचकर संसार को तज दे या शौक का हाथ बढ़ाकर इस रंग और प्रकाश, ध्वनि और संगीत से भरे हुए नाचते खिलौने को उठाले।
गालिब ने निश्चय ही इस विश्वास से एक बड़ा आशावादी दृष्टिकोण अपनाया जो उसके सारे काव्य में खन-ए-बहार की तरह दौड़ रहा है। दुग्व और संताप आनंद के नवीनीकरण की बुनियादे है। इसलिए इनसे विमुख रहना मृत्यु, और खेलना जीवन की दलील है। स्वयं मृत्यु जीवन का आनंद बढ़ा देती है और कार्य-आनंद का साहस प्रदान करती है (२२)। संसार की कठि- नाइयाँ इसलिए है कि मानवता की तलवार सान पर चढ जाय और जौहर चमक उठे। गालिब ने अपने एक और फारसी कसीदे में कहा है कि मेरा जुनून (उन्माद) मुझे बेकार नहीं बैठने देता, आग जितनी तेज है उतनी ही मै और उसे हवा दे रहा हूँ, मौत से लड़ता हूँ और नंगी तलवारो पर अपने शरीर को फेकता हूँ, तलवार और कटार से खेलता हूँ और तीरो को चूमता हूँ।
यही कारण है कि गालिब के ग्राम इतने आकर्षक है। उनमें जो भरपूर हर्ष की कैफ़ियत है वह उर्दू के किसी कवि के यहाँ नहीं मिलेगी। केवल इकबाल उसमें गालिब के निकट आता है। किन्तु वहाँ भी आशावाद का चितन-पक्ष अस्तित्व के हर्ष की भावुक कैफ़ियत पर हावी है। गालिब की शामिरी में ग़म और हर्ष को अलग अलग करना लगभग असंभव है। इसलिए उसे केवल गम या केवल हर्ष का कवि समझना भूल है। वह वास्तव में गम की खुशी का शा अिर है। यानी वह मुसीबतो से लड़कर हर्ष का सामान प्राप्त करता है जैसे शराब की कड़वाहट सहन करके मदिरता की मंजिल प्राप्त की जाती है, फिर वह कड़वाहट स्वयं मदिर बन जाती है।
इसके बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती कि गालिब के