पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/९

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विश्व में मनुष्य का क्या स्थान है। वह भी अन्य सचराचर की भॉति ब्रह्म का प्रकाश है। किन्तु मानव तथा अन्य सचराचर में एक अंतर है। और यह बहुत बड़ा अंतर है। मानव के पास कामना है, भावना है, शौक है, तड़प है। उसके अंत:करण में एक हलचल है जो अस्तित्व-सागर में जल की आर्द्रता की तरह और रेशम के लच्छे में तार की तरह है (फारसी मसनवी)। और सबसे बड़ी बात यह है कि उसके पास बुद्धि है। वह अपने हाथो और मन के सहयोग से अपना चरित्र और आचरण प्राप्त करता है, और बुद्धि और प्राण के मिलन से वाक्शक्ति (अब्र-ए-गुहरबार )। उसकी बुद्धि सीमित सही किन्तु असीम बुद्धि का एक अंश है। गालिब ने “मुग़न्नीनामे ” में इस बुद्धि को विश्व की श्रृंगारकारिणी शक्ति कहा है जो रूहानियो (आध्यात्मवादियो) की उषा का प्रकाश और यूनानियो के विज्ञान की रातो का दीप है। संसार की सारी शोभा इसी मानव के कारण है- • जिमा गर्मस्त इन हंगाम: बिनगर शोर-ए-हस्ती रा कयामत मी दमद अज्ज पर्दः-ए-खाके कि इन्साँ शुद (दुनिया की यह हलचल मेरे कारण है और मिट्टी के उस पर्दे मे प्रलय मचल रहा है जो मानव बन गया है) गालिब की दृष्टि में मानव की महानता इतनी विशद है कि वह उसे सृष्टि का अक्ष (धुरा ) समझता है और विश्व की सृष्टि का कारण ठहराता है। जि आफ़रीनिश-ए-'आलम गरज जुज आढम नीस्त बगिर्द-ए-नुक्तः -ए-मा दौर-ए-हफ्त परकारस्त (विश्व की सृष्टि का उद्देश्य मानव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मैं केन्द्र हूँ और मेरे चारो ओर सात वृत्त घूम रहे है) मिट्टी के पद से उठनेवाले इस कयामत के फ़ितने का सारा प्रयास यह है कि इस सृष्टि को जिसमें वह चारो ओर से घिरा हुआ है देखे और समझे। हर समय और हर रंग में दुनिया के तमाशे में तन्मय और विभोर रहे और अपनी संकीर्ण ऑखो को उन्मीलित करता रहे (११८)। अपने चारो ओर बिखरी छवि के पर्दे उठाये और उनके अर्थ तक पहुँचने के लिए दिल-ओ- जिगर का खून कर डाले और यदि तत्त्व को समझने का सामान न हो तो भी रूप की जादूगरी के तमाशे में खोजाय (१२-४)। संभव है कि इस सौन्दर्योपासक और दर्शनाभिलाषी के लिए बहार को अवकाश न हो और निगार (सुन्दरी) को प्रेम न हो। न सही, बहार फिर बहार है, निगार फिर निगार है। चमन (उद्यान) की शीतलता और सुरभित समीर से और माशूक की मस्त अदा से तो इन्कार संभव नहीं है (२१०-६,१०)। कामना की अग्निशाला तो बहरहाल प्रज्वलित रखी जासकती है क्योकि जबतक कल्पना,