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मुझको पूछा, तो कुछ ग़ज़ब न हुआ
मैं ग़रीब और तू ग़रीब नवाज़
असदुल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ
अय दरेग़ा, वह रिन्द-ए-शाहिद बाज़
७३
मुशदः अय जौक़-ए-असीरी, कि नज़र आता है
दाम ख़ाली, क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ्तार के पास
जिगर-ए-तश्नः-ए-आज़ार, तसल्ली न हुआ
जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास
मुँद गई खोलते ही खोलते आँखें, हय, हय
ख़ूब वक़्त आये तुम, इस 'आशिक़-ए-बीमार के पास
मैं भी रुक रुक के न मरता, जो ज़बाँ के बदले
दश्नः इक तेज़ सा होता, मिरे ग़मख़्वार के पास
दहन-ए-शेर में जा बैठिये, लेकिन अय दिल
न खड़े हूजिये ख़ूबान-ए-दिल आज़ार के पास
देख कर तुझको, चमन बसकि नमू करता है
ख़ुद बख़ुद पहुँचे है गुल, गोशः-ए-दस्तार के पास