पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/८५

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मर गया फोड़ के सर, गालिब-ए-वह्शी, हय, हय बैठना उसका वह आकर तिरी दीवार के पास ७४ न लेवे गर खस-ए-जौहर, तरावत सब्जः-ए-ख़त से लगावे ख़ानः-ए-आईनः में रू-ए-निगार आतश फ़रोरा-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-'आशिक न निकले शम अ के पा से, निकाले गर न ख़ार पातश जादः-ए-रह ख़ुर को वक्त-ए-शाम है तार-ए-शु आश्र चर्व वा करता है माह-ए-नौ से आगोश-ए-विदा श्र रुख-ए-निगार से, है सोज-ए-जाविदानि-ए-शम्श्र हुई है आतश-ए-गुल, आब-ए-जिन्दगानि-ए-शम्श्र जबान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में, है मग ख़ामोशी यह बात बज़्म में, रौशन हुई जबानि-ए-शम्श्र