यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मर गया फोड़ के सर, ग़ालिब-ए-वह्शी, हय, हय
बैठना उसका वह आकर तिरी दीवार के पास
७४
न लेवे गर खस-ए-जौहर, तरावत सब्ज़:-ए-ख़त से
लगावे ख़ानः-ए-आईनः में रू-ए-निगार आतश
फ़रोग़-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-'आशिक़
न निकले शम'अ के पा से, निकाले गर न ख़ार आतश
७५
जादः-ए-रह ख़ुर को वक्त-ए-शाम है तार-ए-शु'आ'अ
चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदा'अ
७६
रुख-ए-निगार से, है सोज़-ए-जाविदानि-ए-शम्'अ
हुई है आतश-ए-गुल, आब-ए-ज़िन्दगानि-ए-शम्'अ
ज़बान-ए-अहल-ए-ज़बाँ में, है मर्ग ख़ामोशी
यह बात बज़्म में, रौशन हुई ज़बानि-ए-शम्'अ