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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/९९

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रँज-ए-नौमीदि-ए-जावेद, गवारा रहियो
ख़ुश हूँ गर नालः ज़वूनी कश-ए-तासीर नहीं

सर खुजाता है, जहाँ ज़ख्म-ए-सर अच्छा हो जाय
लज़्ज़त-ए-सँग ब अन्दाज़:-ए-तक़रीर नहीं

जब करम रुख़सत-ए-बेबाकि-ओ-गुस्ताख़ी दे
कोई तक़सीर बजुज़ ख़जलत-ए-तक़सीर नहीं

ग़ालिब, अपना यह 'अक़ीद: है, बक़ौल-ए-नासिख़
आप बेबहरः है, जो मो'तक़िद-ए-मीर नहीं

९४


मत मर्दुमक-ए-दीदः में समझो यह निगाहें
हैं जम'अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें

९५


बर्शकाल-ए-गिरियः-ए-'आशिक़ है, देखा चाहिये
खिल गई मानिन्द-ए-गुल, सौ जा से दीवार-ए-चमन

उल्फत-ए-गुल से ग़लत है दा'वः-ए-वारस्तगी
सर्व है बावस्फ़-ए-आजादी गिरफ़्तार-ए-चमन