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दुखी भारत

रहती थी। जो इस प्रकार विवाह कर लेते थे उनकी संतान को माता-पिता के धर्मों में महान् अन्तर होने के कारण भारतीय पद्धति के शूद्रों के अनुसार निम्न वर्ग में सम्मिलित होना पड़ता था। मनुस्मृति में हम पढ़ते हैं कि शूद्र की पूजा को देवता लोग स्वीकार नहीं करते। रोम में भी वे जेन्स लोगों की पूजा के समय किसी बाहरी व्यक्ति की उपस्थिति से उसी प्रकार अप्रसन्न होते थे। पञ्जाब में जैसे गोत-कवल अर्थात् स्त्री को पति का जूठा खिला कर पति के गोत्र में उसे मिला लेने की प्रथा है वैसे रोम में 'कानफेरेशों' की प्रथा थी। कानफेरेशों में भी स्त्री पुरुष एक साथ एक प्रकार की रोटी खाते थे और उनका वर्ग एक हो जाता था।

मिस्टर सिनर्ट ने भोजन आदि के सम्बन्ध में भी समानता होने का पता लगाया है। 'भारतवर्ष की भाँति रोम में भी पितरों को प्रतिदिन तर्पण देने की प्रथा थी। हिन्दुओं की श्राद्ध की प्रथा के समान......जो कि कौटुम्बिक सहभोज को दीर्घकाल तक बनाये रखने का एक अच्छा आदर्श है,.....यूनान और रोम में मृत्यु के अवसरों पर दावत देने की प्रथा थी।' भारतवर्ष में जिस प्रकार जाति-बहिष्कृत को फिर जाति में वापस लेने के लिए एक दावत दी जाती है, कुछ कुछ उसी प्रकार की एक दावत का मिस्टर सिनर्ट ने फ़ारस और रोम में भी पता लगाया है। उस दावत में केवल बाहरी लोग ही नहीं किन्तु कुटुम्ब के चरित्रहीन व्यक्ति भी भाग नहीं ले सकते थे। जाति-च्युत करने और जातीय पञ्चायत की शक्तियों के सम्बन्ध में मिस्टर सिनर्ट लिखते हैं कि प्राचीन भारत में अपराधी के बर्तन में किसी दास से पानी भरवा कर और फिर उस पानी को पृथ्वी पर गिरवा कर जैसे जाति से बहिष्कृत करने की प्रथा थी उसी से मिलती जुलती रोम में भी धार्मिक और सामाजिक बहिष्कार करने की प्रथा थी। अब भी भारतवर्ष में 'हुक्का पानी बन्द करने' का रिवाज है। यह रोम के पवित्र अग्नि-द्वारा जातिच्युत करने की प्रथा से मिलता-जुलता है। इन सब अधिकारों को अपने हाथ में रखनेवाली भारतवर्ष की जातीय पञ्चायतों की भाँति भी यूनान, रोम और प्राचीन जर्मनी में कौटुम्बिक सभायें थीं और रोमन जेन्स के मुखियों को इसी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। वे भारतवर्ष के जाति के मातवर की भाँति आपस के