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दुखी भारत

एक उद्देश्य यह भी था कि मैं वहाँ जाकर हबशियों की समस्या का अध्ययन करूँ और उन राज्यों में हबशी जनता के उद्धार और शिक्षा के लिए जो उपाय काम में लाये जाते हैं उनको समझूँ।' इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए मेरी इच्छा इसलिए प्रबल हो उठी थी कि—

"हबशी अमरीका का चाण्डाल है। संयुक्त-राज्य अमरीका की हबशियों की समस्या में और भारतवर्ष की दलित जातियों की समस्या में कुछ समानता है। दोनों स्थितियाँ पूर्णरूप से एक दूसरे से नहीं मिलती-जुलतीं परन्तु बहुत कुछ दोनों में समान रूप से पाई जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका की सामाजिक समस्या अपनी कुछ दशाओं में भारतवर्ष की सामाजिक समस्या से बहुत मिलती-जुलती है। इसीलिए मेरी यह इच्छा हुई थी कि वहाँ जाकर इस समस्या के सब पहलुओं का अध्ययन करूँ और उन रियासतों के हबशी नेताओं के सम्पर्क में आऊँ ताकि मुझे उनके दृष्टिकोण का भी वास्तविक ज्ञान हो जाय।"

अपनी पुस्तक में मैंने एक विशेष अध्याय 'अमरीका की राजनीति में हबशी के स्थान' पर ही विचार करने के लिए रखा है। आगे जो वर्णन आएगा वह मैंने अधिकांश में इसी अध्याय से लिया है।

हबशी को दलितावस्था में रखने के लिए, उसको भागने से रोकने के लिए, भग जाने के पश्चात् पुनः पकड़ने के लिए और स्वामी को उस पर पूर्ण शासन का अधिकार देने के लिए अत्यन्त कठोर कानून बनाये गये थे। १८२९ ई॰ में जब एक स्वामी पर अपने दास के पीटने का अपराध लगाया गया तब उत्तर कैरोलिना की बड़ी अदालत ने उस स्वामी को मुक्त कर दिया और स्वामी के 'इस अधिकार को स्वीकार किया कि वह अपने दास को मृत्यु से कम चाहे जो दण्ड दे सकता है'। इसी सिलसिले में उस अदालत ने कहा कि 'यह सोचना उचित नहीं है कि स्वामी और दास में वही सम्बन्ध है जो पिता और पुत्र में है। पुत्र को पढ़ाने लिखाने में पिता का यह उद्देश्य रहता है कि वह एक स्वतंत्र नागरिक के समान जीवन व्यतीत करने की योग्यता प्राप्त कर ले। उसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह उसे नैतिक और बौद्धिक शिक्षा देता है। दास के साथ इससे भिन्न बर्ताव किया जाता है। इस सम्बन्ध में 'चीफ़