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दुखी भारत

कितने ही अन्य आहतों ने भी यही निश्चय किया था। मिस ग्रूनिंग ने ६५ वर्ष की एक वृद्धा को देखा जो एक बिलकुल उजड़े हुए खँडहर में भटक रही थी। यह खँडहर पहले उसका घर था। बातचीत होने पर उस वृद्धा ने पूछा—'हम क्या करें? दक्षिण में हम लोग रह नहीं सकते और उत्तर में रहने नहीं पाते! हम क्या करें?'

हम समझते हैं कि उपरोक्त बातों से पाठकों को संयुक्त राज्य में हबशियों की समस्या का कुछ अनुमान हो गया होगा। इस समस्या से सम्बन्ध रखनेवाले दोनों दल गोरे और काले परिस्थिति की गम्भीरता से भली भांति परिचित हैं। गोरे स्वयं भी तीन भागों में बंटे हुए हैं। पहले भाग में वे लोग हैं जो हबशियों के विरुद्ध द्वेष-भाव रखने की घोर निन्दा करते हैं। दूसरे भाग में वे लोग हैं जो हबशियों के विरुद्ध द्वेष-भाव रखने की निन्दा तो करते हैं परन्तु कुछ कोमलता के साथ इसको बनाये रखना भी चाहते हैं। कारण यह बतलाते हैं कि गोरे और काले में इतना अन्तर है कि गोरे के लिए यह असम्भव है कि वह काले को अपने बराबर का समझे। ये लोग उच्च श्रेणी के अर्थात् शिक्षित और सभ्य हबशियों के पक्ष में अपनी राय दे सकते हैं। तीसरे भाग में वे लोग हैं जो केवल वर्ण-भेद के कारण हबशियों का विरोध करते हैं। और किसी दशा में भी उनके साथ कोई सामाजिक सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। इस श्रेणी के मनुष्यों का यह विश्वास है कि किसी प्रकार की भी शिक्षा औद्योगिक, साहित्यिक या धार्मिक कितनी ही क्यों न दी जाय हबशी गोरा नहीं हो सकता, तथा उसके और गोरे आदमी के बीच में जो चौड़ी खाई है उस पर कभी पुल नहीं बांधा जा सकता।

हबशी अमरीका में हताश और स्वदेश से पृथक् किये गये व्यक्तियों के रूप में लाये गये थे। इस प्रकार लाये गये दास अपने देश और जाति बहिष्कृत तथा तिरस्कृत तो समझे ही गये उनको पराजित और पराधीन भी बनना पड़ा। अमरीका में दासता-काल में न तो उन्हें पढ़ने-लिखने की स्वाधीनता प्राप्त थी, न चलने-फिरने की, न परस्पर कोई सम्पर्क रखने की और न कहीं अनियन्त्रित रूप से एकत्रित होने की। साधारणतया जिन बातों से मनुष्य सभ्य बन सकता है वे सब उनसे दूर रक्खी गई। स्वामी के ऊपर अपने दास