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दुखी भारत

वैदिक साहित्य में स्त्रियों के पर्दे में रहने का कहीं भी पता नहीं चलता। और जितने प्रमाण मिलते हैं वे सब इसी बात की पुष्टि करते हैं कि स्त्रियों को चलने फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी।

स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि स्त्रियों को पढ़ने-लिखने की केवल स्वतंत्रता ही नहीं थी बल्कि इस बात को सिद्ध करनेवाले प्रमाण भी मिलते हैं कि शिक्षा में स्त्रियाँ छात्रा और शिक्षिका के रूप में उच्च से उच्च प्रतिष्ठा-पद प्राप्त करती थीं।

रामायण और महाभारत-काल-महाभारत और रामायण काल में हम आकर देखते हैं कि स्त्रियों का स्थान किसी दशा में गिरा नहीं था। उस काल में भी विवाह के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता थी। स्वतंत्रता ही नहीं, पूर्ण स्वतंत्रता थी। रामायण और महाभारत-काल में समाज ऐसे विवाहों की स्वीकृति देता था जो माता-पिता की बिना अनुमति के स्वतन्त्र प्रेम के परिणाम स्वरूप होते। उदाहरण के लिए महाभारत की कथा के दो मुख्य पान अर्जुन और सुभद्रा के विवाह को लीजिए। उस समय के समाज का झुकाव उन समस्त विवाहों की स्वीकृति देने की ओर था जिनसे विवाह के समय विवाह करनेवालों के। विचारों से यह प्रकट होता था कि यह सम्बन्ध स्थायी होगा। वास्तव में विवाह के ऐसे ऐसे रूप स्वीकार किये गये हैं जो अनियमित सम्बन्धों को भी धर्मोचित ठहराते हैं। जिससे कि ऐसे सम्बन्धों से जो सन्तान उत्पन्न हो उसे जारज होने का अपमान न सहना पड़े। उस समय जाति के बन्धन तो थे ही नहीं। अपनी सम्पत्ति पर स्त्रियों की शक्ति और अधिकारों का स्पष्ट विकास मिलता है, जो कि स्त्री-धन कहा जाता था। हाँ, यह कहना ठीक न होगा। कि वैदिक या रामायण और महाभारत काल में स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता। का उस रूप में भी विचार किया गया है जिस रूप में कि आज वह पश्चिम में समझी जाती है। यह कहा जाता है कि रामायण और महाभारत काल में स्त्रियों को पर्दे में रखने की प्रथा आरम्भ हुई। परन्तु यह सम्मति बहुत ही निर्बल बातों पर अवलम्बित है और विपक्ष में जो प्रमाण हैं उनकी गुरुता पर। यह ध्यान नहीं देती। स्त्रियों के खेल देखने, स्वपति के साथ युद्ध-क्षेत्र में जाने, यात्रा में जाने और अन्य प्रकार से स्वतंत्रता-पूर्वक विचरण करने के अनेक