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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान

सातवें श्लोक में पति से कहा गया है कि वह पत्नी की बड़ी सावधानी के साध रक्षा करें। क्योंकि उसकी रक्षा करके वह अपनी सन्तान की रक्षा करता है, अपने कुल-धर्म की रक्षा करता है और स्वयं अपनी तथा अपने धर्म की रक्षा करता है। इसके पश्चात् के दो श्लोकों में बताया गया है कि 'रक्षा करने का क्या अर्थ है! यह कहा गया है कि बल-प्रयोग करके या पर्दे में बन्द करके कोई पुरुष किसी स्त्री की रक्षा नहीं कर सकता। केवल वे ही स्त्रियाँ भली भौति रक्षित रहती हैं जो अपनी रक्षा अपने आप करती हैं। यहां पर उन्हें निरन्तर काम में लगी रहने के कुछ उपाय बतलाये गये हैं। इन नियमों में केवल एक बात पर निरन्तर ध्यान रक्खा गया है। वह है सन्तति की शुद्धता। यह शुद्धता (क) वर और वधू के सावधानी के साथ किये गये चुनाव से (ख) जाति के भीतर ही विवाह करने से (ग) स्त्रियों के सामने सदाचार का सर्वोच्च शादर्श रखने से (घ) पत्नी पर शासन करने का पति को पूर्ण अधिकार देने से (ङ) जाति से बाहर किये गये विवाहों के दुष्परिणामों का ज़ोरदार शब्दों में विवेचन करने से और (च) मिश्रित विवाहों से उत्पन्न सन्तति को समाज में अत्यन्त निम्नस्थान प्रदान करने से, प्राप्त हो सकती है।

आरम्भिक साहित्य में हम समस्त स्थायी सम्बन्धों को धर्मानुकूल समझने की उत्कण्ठा पाते हैं। चाहे वे सम्बन्ध प्रेम के कारण हो, चाहे दैवयोग से हो गये हो, चाहे अविचार-द्वारा हो गये हो। इसका उद्देश्य यह था कि इस प्रकार जो सन्तति उत्पन्न हो वह धर्मानुकूल समझी जाय। यह स्पष्टरूप से कह दिया गया था कि जाति के बाहर जो विवाह होंगे उनसे उत्पन्न सन्तति की जाति वही समझी जायगी जो पिता की जाति होगी। कुमारियों के पुत्र अपने पिता के धर्मानुकूल पुत्र समझे जाते थे। और जो पुरुष अपनी स्त्री को उसके निर्दोष होने पर भी त्याग देता था, नपुंसक होता था, या क्षयी का रोगी होता था, उसकी स्त्री का दूसरे पुरुष के सम्बन्ध से उत्पन्न पुत्र भी धर्मानुकूल ही समझा जाता था। पश्चात् के साहित्य में जाति से बाहर के सम्बन्धों से उत्पन्न सन्तति निम्नश्रेणी की समझी जाने लगी थी। कुछ अपवादों को छोड़ कर अनुचित सम्बन्धों से जो सन्तानोत्पत्ति होती थी उसको भी यही स्थान