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दुखी भारत


भारतवर्ष की संयुक्त-राज्य (अमरीका) से तुलना करते हुए मिस मेयो लिखती है:—

"यह सच है कि हमारे देश में बड़ी बड़ी चरागाहें हैं। परन्तु हम उनको बदलते रहते हैं और अधिक चर लिये जाने से बचाते रहते हैं। यह एक ऐसा विषय है जिसकी भारतवासी कल्पना ही नहीं कर सकते। उन-भागों—पश्चमीय प्रदेश के ऊसर और अर्द्ध-ऊसर के पहाड़ी सिलसिलों—में भी जहाँ चरागाहों का क्षेत्रफल बहुत विस्तृत है हम अपनी खेती का भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने में लगाते हैं हम अपनी रुई उत्पन्न करने वाली भूमि का ५३ प्रतिशत भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने में लगाते हैं। इसमें पशुओं के लिए अनाज, ग्वार, छीमी आदि उत्पन्न किया जाता केवल १० प्रतिशत भूमि मनुष्यों के लिए खाद्य-सामग्री उत्पन्न करने के काम में लाई जाती है। हमारे यहाँ अन्न और शीतकाल के गेहूँ उत्पन्न करने की भूमि के ७५ प्रतिशत भाग में पशुओं के लिए चारा उत्पन्न किया जाता है। गल्ला उत्पन्न करने की भूमि के ८५ प्रतिशत भाग में पशुओं के लिए चारा बोया जाता है और केवल १६ प्रतिशत भाग मनुष्य के काम आता है। उत्तर और पूर्व के राज्यों में उपजाऊ भूमि का लगभग ७० प्रतिशत भाग पशुओं के लिए चारा उत्पन्न करने के काम में आता है। हमारी सम्पूर्ण उपजाऊ भूमि का १० भाग पशुओं के लिए खाद्य सामग्री उत्पन्न करने में लगाया जाता है। मनुष्य का भोजन हमारे यहाँ २५,००,००,००० एकड़ भूमि में उत्पन्न किया जाता है। और प्रत्येक ५ व्यक्तियों के लिए एक दूध देनेवाली गाय होती है।"

हिन्दुओं की गो-भक्ति के सम्बन्ध में मिस मेयों ने एबे डुबोइस की पुस्तक से इस आशय का एक अंश उद्धृत किया है कि 'अत्यन्त धर्मात्मा लोग प्रतिदिन गो-मूत्र पीते हैं।' यह वक्तव्य सर्वथा मिथ्या है। १८ वीं शताब्दी में मदरास में कुछ लोग ऐसा करते रहे हो तो मैं नहीं कह सकता, परन्तु अपने जीवन में (इस समय मैं ६३ वर्ष का हूँ) मैंने एक भी ऐसा धर्मात्मा मनुष्य नहीं देखा जो गाय का मूत्र पीता हो। अस्तु एबे के वक्तव्य पर मिस मेयो ने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की है—'इन बातों में कट्टर भारतवर्ष जैसा एबे के समय में था वैसा ही अब भी है।' इन बातों ने इस विषय को बहुत भद्दा बना दिया है।