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गाय भूखों क्यों मरती है?

हैं। जिस विषय पर हम विचार कर रहे हैं उसका ऊपर उद्धत की गई उनकी सम्मतियों से संक्षेप में इतना ठीक ज्ञान हो जाता है कि इस विषय पर अधिक विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

इस वक्तव्य में श्रीयुत लप्टन ने अकाल के वर्षों में भी देश से बाहर खाद्य-अन्न भेजने की नीति के कुप्रभावों पर विचार नहीं किया। इससे ज़मींदारों को लाभ अवश्य होता है। परन्तु जन-साधारण इस नीति के कारण वैसे ही कम मात्रा में भोजन पाते हैं और भूखों मरते हैं जैले श्रीयुत लप्टन के विचार में पालतू पशुओं के कारण।

फिर भी यह कहने से काम न चलेगा, जैसा कि कुछ मनचले समालोचक यदा कदा कहा करते हैं, कि भारतवर्ष के आधे पशुओं को नष्ट कर देना चाहिए भारतवर्ष में जितने पशु हैं उनकी तुलना खेती के योग्य प्रति एकड़ भूमि के हिसाब से अन्य देशों के पशुओं के साथ कीजिए तो यह बात स्वयं आपकी समझ में आ जायगी। भारतवर्ष की जन-संख्या में जिस हिसाब से बृद्धि हुई है उसी हिसाब से पशुओं की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। और बैलों को वर्तमान संख्या खेती के लिए जितनी भूमि प्राप्त हो सकती है, उसके जोतने के लिए भी यथेष्ट नहीं है। फिर वर्तमान जन-संख्या के लिए खाद्य-सामग्री कैसे उत्पन्न की जाय?[१]

इन आर्थिक समस्याओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गाय उस देश में भूखों क्यों मरती है जहाँ उसकी पूजा होती हैं। परन्तु इसमें सन्देश नहीं कि भारतवर्ष में मूर्ख और स्वार्थी ग्बाले गायों के साथ अत्यन्त निर्दयता का बर्ताव करते हैं। भारतवासी मिस मेयो से बड़ी सरलतापूर्वक यह कह सकते हैं कि वह उन्हें बकरों की जीवित खाल खींचने के लिए उपदेश देने की अधिकारिणी नहीं है जब कि वह जानती है कि, स्वयं उसके देश में और अन्य

योरपियन देशों में स्त्रियों के फैशन के लिए पक्षियों के रोओं और पंखों आदि के नोचने में उससे कहीं अधिक निर्दयता से काम लिया जाता है। परन्तु


  1. एन॰ चैटर्जी-कृत "भारतवर्ष में पशुओं की स्थिति" नामक पुस्तक कीं सर जान उडरोफ़ की लिखी भूमिका। (अखिल भारतवर्षीय गोरक्षिणी सभा, कलकत्ता के अधिवेशन १९२६ के समय लिखित) पृष्ठ १४।