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विषय-प्रवेश


डुबोइस से कहीं बढ़े चढ़े हैं। मिस मेयो इनमें से किसी को नहीं जानती। वह इनके लेखों और सम्मतियों का ज़िक्र भी नहीं करती। वह एक-मात्र डुबोइस महाशय का विश्वास करती है जिन्होंने कि संस्कृत ग्रन्थों के उस समय प्राप्त योरपीय भाषा में अनुवाद से अपना ज्ञान अर्जित किया था। उनके व्यक्ति-गत अनुभवों के सम्बन्ध में भी यह स्मरण रखना चाहिए कि भारतवर्ष में वे जब तक रहे उनका समस्त समय दक्षिण भारत में, कृष्णा नदी के दक्षिण, व्यतीत हुआ। उनके ग्रन्थों के आक्सफोर्ड संस्करण के सम्पादक लिखते हैं*[१]

"वह [ डुबोइस ] अपने ग्रन्थ का सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में लागू होने का दावा नहीं करता। अधिक कहा जाय तो उसके अनुभव भारत के केवल उसी भाग तक जाते हैं जो विन्ध्याचल पहाड़ के दक्खिन में है। और बह बड़ी सावधानी के साथ लिखता है कि उन सीमाओं के भीतर भी स्थानीय भेदभाव इतने अधिक और इतने प्रकट हैं कि हिन्दुओं की कोई जाति, वर्ग या सम्प्रदाय ऐसा नहीं जिसमें हिन्दू-धर्म के साधारण नियमों के अतिरिक्त औरों से भिन्न कोई विशेष रिवाज न हो।' इसलिए उसी के कथनानुसार उसकी बातों से सम्बन्ध रखनेवाले किसी विषय से पूर्ण सचाई के साथ कोई उत्तम परिणाम नहीं निकाला जा सकता।"

इंडियन सोशल रिफ़ार्मर (भारतीय समाज-सुधारक) के सम्पादक श्रीयुत के० नाटराजन, जो स्वयं भी एक बड़े समाज-सुधारक हैं, अपने पत्र में मिस मेयो की पुस्तक पर सिलसिलेवार कई लेख लिखते हुए लिखते हैं :—

"एबे शुरू से अख़ीर तक पाखण्डी था। वह लिखता है—-'हिन्दुस्तान में आते ही मुझे यहीं के बाशिन्दों का विश्वासपात्र बनने की अत्यन्त आवश्यकता प्रतीत हुई। अतः मैंने उन्हीं की तरह जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। मैंने उनकी सी पोशाक धारण की और उनकी तरह ठीक ठीक मालूम होने के लिए मैंने उनके रस्म-रवाजों का अध्ययन किया। इतना ही नहीं, मैंने उनके बेढङ्गे विरोधी भावों पर क्रोध करना भी बन्द कर दिया। इस होशियारी से रहने के कारण सब जाति और स्थिति के लोग


  1. वही पुस्तकं पृष्ठ, १३