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दुखी भारत

दिये हैं जो उन्होंने 'अवध की समस्याएँ' शीर्षक के अन्दर १८७६ ईसवी के पायनियर में प्रकाशित कराये थेः—

"यह अनुमान किया गया है कि सम्पूर्ण देशी जनता का ६० प्रतिशत...ऐसी घृणित दरिद्रता में डूबा हुआ है कि उस थोड़ी सी पूँजी में, जिससे कुटुम्ब प्राण धारण किये रहता है, यदि छोटे बच्चों तक की ज़रा ज़रा सी कमाई न जोड़ी जाय तो कुटुम्ब के कुछ लोग अवश्य भूखों मर जायँ।"

भारतवर्ष के अधिकांश लोगों को कभी भर पेट भोजन नहीं मिलता। यह बात ठीक है या नहीं? इसका उत्तर वे निम्नलिखित शब्दों में देते हैं:—

"कृषि-सम्बन्धी ऋण के प्रश्नों पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विचार करने के पश्चात् मेरा निजी विश्वास तो यह है कि यह धारणा सर्वथा सत्य है। हाँ, यह बात अवश्य है कि यह संख्या घटती बढ़ती रहती है पर भारत के अधिकांश भाग में ऐसे लोगों की एक यथेष्ट संख्या विद्यमान रहती है।"

इलाहाबाद डिवीज़न के कमिश्नर श्रीयुत्त ए॰ जे॰ लारेन्स ने, जिन्होंने १८९१ ईसवी में पेंशन ली थी, लिखा था:—

"मैं इस बात को जानता हूँ कि निर्धन श्रेणियों में और भूख से अधमरे हुए लोगों में बहुत थोड़ा सा अन्तर है। परन्तु उपाय क्या है?"

संयुक्त-प्रान्त के एक दूसरे जिले शाहजहाँपूर के सम्बन्ध में कहा गया है कि—'भूमि-रहित मज़दूरों की दशा किसी प्रकार भी अच्छी और वाञ्छनीय नहीं कही जा सकती। एक मनुष्य की उसकी स्त्री की और दो बच्चों की सम्मिलित कमाई ३ रुपये मासिक से अधिक नहीं अनुमान की जा सकती। (अमरीका के सिक्के में यह एक डालर से भी कम है) जब अनाज का भाव सस्ता या औसत दर्जे का रहता है, बराबर काम मिला जाता है और सारे घर का स्वास्थ्य अच्छा रहता है तब इस आय से उन्हें दिन भर में एक बार भर पेट भोजन मिल जाता है, अपने सिर के ऊपर के एक फूस की झोपड़ी खड़ी कर लेते हैं और सस्ता कपड़ा तथा कभी कभी एक पतला कम्बल ख़रीद लेते हैं। वर्षाऋतु और शीतकाल में उन्हें निस्सन्देह बहुत कष्ट होता है क्योंकि उनके पास वस्त्रों की कमी होती है और आग के लिए ईंधन का भी प्रबन्ध वे नहीं कर सकते। जलाने के लिए थोड़ी सी सूखी टहनियाँ मिल जायँ तो वे