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सत्ताईसवाँ अध्याय

भारत के धन का अपव्यय-समाप्त

रेलों के लिए सस्ता ऋण

यह बात सच है कि आज भारतवर्ष में ४० हज़ार मील रेल की सड़कें हैं। परन्तु इनका कैसे निर्माण हुआ, कैसे आर्थिक सहायता मिली, कैसे इनका प्रयोग किया जाता है आदि बातों की कथा में निन्दा के अतिरिक्त और कुछ मिल नहीं सकता। भारतीय रेलवे नीति ने भारतवर्ष के हितों की कभी परवाह नहीं की। इनका मुख्य उद्देश्य केवल ब्रिटेन का युद्ध-सम्बन्धी या व्यापारसम्बन्धी स्वार्थ-साधन रहा है। भारतीय रेलों के निर्माण-कर्ता या सञ्चालक अँगरेज़ों के गुट्ट थे जिन्हें कभी किसी प्रकार का घाटा नहीं हुआ। उलटा उन्होंने भारत के कर-दाताओं के सैकड़ों रुपये मूँड़ लिये। यह सब होते हुए भी उनका बर्ताव भारतीय यात्रियों के साथ अत्यन्त घृणित और निन्दाजनक रहा है। तीसरे दर्जे के यात्रियों के साथ उनका बर्ताव अत्यन्त नीचतापूर्ण रहा है; यद्यपि आय का अधिकांश भाग उन्हीं से मिलता रहा है। इनमें से कुछ कम्पनियाँ जो तीसरे दर्जे के यात्रियों का पैसा खा खाकर मोटी हुई हैं, घृणा के साथ इस दर्जे को 'कुलीदर्जा' कहती रही हैं।

मिस मेयो कहती है कि हम भारतीयों को लन्दन का कृतज्ञ होना चाहिए क्योंकि उसने हमें रेलों के लिए इतने आश्चर्य्यजनक सस्ते ब्याज पर रुपये दिये हैं। वह कहती है-'भारत ने अपने सस्ते बाज़ार, लन्दन, से ऋण लिया।......उसे केवल २.५ से ५ प्रतिशत तक ब्याज देना पड़ा। पूरे ऋण पर इस ब्याज का औसत केवल ३.५ प्रतिशत पड़ा। संसार ने इससे कम ब्याज पर ऋण मिलते कहीं नहीं देखा।' परन्तु यहाँ ऋण शब्द के साधारण अर्थ में ऋण लेना नहीं था। यहाँ पर मिस मेयो जिस बात का उल्लेख कर रही है उसे 'गारंटी-पद्धति' कहते थे। इस पद्धति के अनुसार भारत-सरकार ने रेलवे-कंपनियों को कम से कम ब्याज की गारंटी दी थी। यह सस्ती पूँजी