पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/३९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३७२
दुखी भारत


इसने स्वयं नहीं ली, न रेलों का निर्माण किया और न उनकी आय पर अधिकार रखा। इसने कंपनियों को अधिक ब्याज कमाने से रोका भी नहीं।' जिस दर के लिए गारंटी दी गई थी वह केवल नीची सीमा थी।

कंपनियों को कभी किसी प्रकार घाटा नहीं हुआ। उनके समस्त अपव्यय और कमी का भार भारत के कर-दाताओं को वहन करना पड़ा था। इसके अतिरिक्त कंपनियाँ मुफ्त जमीन आदि के रूप में कई एक विशेषाधिकारों का भी उपभोग करती थीं। ऐसे अनेक छोटे मोटे उपाय थे जिनके द्वारा बेभारत का उचित से अधिक धन हरण कर लेती थीं। इस प्रकार जब कंपनी को किसी वर्ष के प्रथम अद्धभाग में खूब प्राय होती थी, पर आगे आय कम होने की सम्भावना रहती थी तब वह अपने समस्त व्ययों को उन कम प्राय के दिनों के लिए रोक रखती थी। इससे प्रथम अर्द्धभाग में तो इसे अच्छी आय हो जाती थी और आगे रोके हुए व्ययों के कारण जो वाटा और भी बढ़ जाता था उसे वह भारतीय कर की आय को सौंप देती थी। इसके अतिरिक्त एक यह बात भी है कि भारत-मंत्री व्यापारिक आदान-प्रदान के कार्य्य की कुछ ऐसी व्यवस्था करते थे कि भारतीय रेलों पर पूँजी लगानेवाले। उनके अँगरेज़ भाइयों को वास्तव में जितना गारंटी किया जाता था उससे कहीं अधिक लाभ हो जाता था।

इस पद्धति का एक मोटा उदाहरण देखना हो तो जी॰ आई॰ पी॰ रेलवे को लीजिए। १८४६ ई० से ११०० तक इस रेलवे का संचालन गारंटीपद्धति के अनुसार होता रहा। १९०१ ईसवी में इस रेलवे को सरकार ने खरीद लिया। परन्तु यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि सरकार ने उसी कंपनी को इस रेलवे का प्रबन्ध आदि करने के लिए अपना एजेंट बना लिया। इस प्रकार कम्पनी एक विशाल-सम्पत्ति की सञ्चालिका बन बैठी यद्यपि उसके पास एक मील भी रेलवे नहीं थी। यह लेखा लगाया गया है कि गारंटी-पद्धति के काल में इस रेलवे ने १४.९१ करोड़ रुपये का नकद घाटा दिखलाया था। उस घाटे पर वार्षिक ब्याज प्रतिशत की दर से १८५२ ईसवी से लेकर १९२४ ईसवी तक ९३,२०,३७,७४१ रु॰ लगाया गया। एजेंसी काल में १९०१ से १९२३ तक १.७३ करोड़ का नकद घाटा दिखलाया गया।