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दुखी भारत


ने जो वक्तव्य प्रकाशित किया है उसके सम्बन्ध में वे मुझे निम्नलिखित पत्र लिखते हैं:—

"आपका १३ ता॰ का पत्र मिला। मिस मेयो ने मेरे जवाबों को ठीक उद्धृत नहीं किया। बात-चीत में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वह मैं समझता हूँ स्वयं उसी की रचना है। मैंने उससे जो कुछ कहा था वह अपनी स्मरण-शक्ति के अनुसार आपको अपने पिछले पत्र में लिख चुका हूँ।

पनगल-नरेश का पिछला पत्र नीचे दिया जाता है:—

"मिस मेयो जब मदरास के 'गवर्ननेंट-हाउस' में थी तो मुझे उससे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। मुझे स्मरण है कि उस अवसर पर उसके प्रश्नों के उत्तर में मैंने कहा था कि इस प्रान्त की वर्तमान खेदपूर्ण निरक्षरता कुछ तो इसलिए है कि सर्व-साधारण में अंध धार्मिक विश्वास फैले हैं और कुछ इसलिए कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार नीच जातियाँ जिनसे कि जन-संख्या का मुख्य भाग बना है, पढ़ने लिखने का काम कर ही नहीं सकती। मैंने उससे यह भी कहा कि आज दिन भी हिन्दू पाठशालाओं में बहुतेरी जातियाँ नहीं भर्ती होने पाती, खासकर उन पाठशालाओं में जहाँ संस्कृत और शास्त्रों की शिक्षा दी जाती है। स्मृतियों में अब्राह्मणों के लिए यह आज्ञा है कि ये वेद का पाठ भी न सुनें। यह आज्ञा न मानने का दण्ड दूसरे लोक में उन्हें—यह मिलता कि उनके कान में शीशा गला कर छोड़ दिया जाता है। फिर मैंने यह कहा कि अँगरेज़ों का शासन होने के बाद से और देश में उच्च शिक्षा का प्रचार बढ़ने से वर्णाश्रम धर्म के सम्बन्ध में शनैः शनैः अज्ञानतापूर्ण विचार मिटते जा रहे हैं और परिणाम यह हो रहा है कि अब अब्राह्मण जातियाँ वर्तमान स्कूलों और कालिजों से लाभ उठाने में बिलकुल सङ्कोच नहीं करतीं।"

दूसरी कथा जिसके सम्बन्ध में मैंने कुछ जाँच की मदर इंडिया के ३१९ पृष्ठ पर है। मिस मेयो लिखती है:—

"तब मुझे दिल्ली में मिले एक प्रीति-भोज का स्मरण आता है। यह प्रीति-भोज मेरे एक भारतीय मित्र ने इसलिए संयोजित किया था कि मैं गुप्त रीति से कुछ स्वराज्यवादी राजनीतिज्ञों की सम्मति सुन सकूँ। मेरे