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दुखी भारत


राष्ट्रीय रवाजों, भाषा और जाति के कारण मिटाया नहीं जा सकता पर अधिकांश में इसका कारण अज्ञानता से उत्पन्न वृणा है। पृथक् रहने की यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है।"

सरकारी अफ़सरों में भारतवर्ष के सम्बन्ध में जो अज्ञानता पाई जाती है उस पर विचार करते हुए श्रीयुत रामसे मैकडानेल ने कहा था:-

"मैं ऐसे मनुष्यों से मिला हूँ जो भारतीय सिविल सर्विस में बीसौं वर्ष रह चुके हैं। वे बहुत कम भारतवासियों को जानते थे। उनसे उन्होंने सार्वजनिक मामलों में कभी बात ही नहीं की थीं। भारतीय जीवन के सम्बन्ध में बहुत साधारण प्रश्नों का भी वेठीक ठीक उत्तर नहीं दे सकते थे। सामयिक विषयों पर उनकी सम्मतियाँ क्लब की बात या समाचार-पत्रों के रटे हुए जुमलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं थीं। वास्तव में वे भारत से उतनी ही दूर थे जितनी दूर मैं यहाँ लन्दन से हूँ। उनकी सम्मतियों को, जब मैंने भारतवर्ष की भूमि पर पैर नहीं रक्खा था, तब भी अपनी सम्मतियों के पश्चात् ग्रहण करता था*[१]।"

मिस्टर मैकडानेल ने लार्ड कर्ज़न का यह कथन उद्धृत किया है कि पहले प्रत्येक व्यक्ति जो शासन में भाग लेने के लिए भारतवर्ष में जाता था वह यह सोचता था कि मुझे वहाँ के लोगों से बात-चीत करने के लिए आवश्यक भाषाएँ अवश्य सीख लेनी चाहिएँ।

"परन्तु प्राज-कल के अहंमन्य लोग इसे सर्वथा अनावश्यक समझते हैं। आज-कल भलीभाँत्ति देशी भाषाएँ बोल लेनेवाले अफसरों की संख्या उससे बहुत कम रह गई है जो अब से ५० वर्षया २० ही वर्ष पूर्व थी। और ऐसे अफसरों की संख्या जो उस देश के साहित्य आदि का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करें प्रतिवर्ष घटती जा रही है†[२]।"

फ़रवरी १९२६ की 'बुकमैन' में एक साहित्यिक अँगरेज़ श्रीयुत अलडोस हक्सले ने भारत पर शासन करनेवाले अपने देशवासियों की धृष्टता और गर्ड का निम्नलिखित वर्णन किया है:-

"एक नवयुवक लन्दन के समीपवर्ती देहात से भारतीय सिविल सर्विस में कुर्की करने जाता है। वह अपने आपको एक छोटी सी शासन करने.

  1. * 'भारतवर्ष में जाग्रति, पृष्ट २६१
  2. † "भारतवर्ष में जाग्रति, पृष्ठ २३६