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दुखी भारत

घुमा फिराकर कहता है कि कोई साधारण नागरिक उसे स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।"

यह 'लाल फीता' तो उसमें सदा ही रहा है परन्तु, जैसा कि डिसरेली बहुत पहले कह चुका था, इस ओर इँगलेंड का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक भयानक समस्या के उपस्थित होने की आवश्यकता थी।

मिस्टर मांटेग्यू के जिस व्याख्यान से ऊपर हम उद्धरण दे आये हैं, उसी में आगे चल कर उन्होंने कहा––

"परन्तु भारतवर्ष में आपके शासन करने का चाहे जो उद्देश्य हो, जिन भारतवासियों से मैं मिला हूँ या जिनसे मैंने पत्र-व्यवहार किया है उन सबकी एक माँग यही है कि आप अपने उस उद्देश्य को बतला दें। उसको बतला देने के पश्चात् उसकी कुछ किश्तें आप उन्हें दें जिससे यह मालूम हो कि आप वास्तव में ऐसा करने के लिए उत्सुक हैं। आपको अपनी जिन नवीन योजनाओं से भारतवासियों को किसी न किसी रूप में अधिक बड़ी प्रतिनिधि-सत्तात्मक व्यवस्थाएँ देने का अवसर मिलता है उनका कुछ आरम्भ होना चाहिए।......

"परन्तु मुझे इसका निश्चय है कि जिस अनुपयुक्त पद्धति पर हमने अब तक भारतवर्ष में शासन किया है उसको बनाये रखने का आपका सबसे बड़ा दावा यही है कि उसमें कोई कमी नहीं है। वह अपूर्ण सिद्ध की जा चुकी है। यह सिद्ध किया जा चुका है कि इसमें इतनी कोमलता नहीं है कि यह भारतवासियों की इच्छाओं को प्रकट होने दे; उनको, जैसा कि वे चाहते एक लड़नेवाली जाति बनने दे। इस युद्ध के इतिहास से आपको ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति भारतवासियों की भक्ति का––यदि पहले कभी सन्देह रहा हो तो भी––भरोसा हो जायगा। यदि आप उस भक्ति का उपयोग करना चाहते हैं तो आप उस देश-प्रेम से लाभ उठाइए जो भारतवर्ष में धर्म समझा जाता है। और केवल कौसिलों-द्वारा ही नहीं, जो कि कुछ काम नहीं कर सकती हैं, किन्तु स्वयं कार्यकारिणी सभा पर अधिकार देकर भी, उन्हें स्वयं अपना भाग्य-निर्माता बनने का वह महान् अवसर प्रदान कीजिए......तब आपको अपने दूसरे युद्ध में––यदि फिर कभी युद्ध हुआ––शान्ति के पश्चात् दूसरे सङ्कट के समय में आपको एक सन्तुष्ट भारत मिलेगा, ऐसा भारत ओ आपकी सहायता करने के लिए सब प्रकार से सुसज्जित हो। मिस्टर स्पीकर! मेरा विश्वास कीजिए; यह आवश्यकता का प्रश्न नहीं है; या चाह का प्रश्न नहीं है। यदि आप इस सौ वर्ष के पुराने और कष्टदायक