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दुखी भारत

ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के वक्र मस्तिष्क के भीतर चाहे जो रहा हो यह स्पष्ट है कि यह घोषणा किसी 'शीघ्र और दयालु हृदयोद्गार' के परिणाम स्वरूप नहीं की गई थी, यह एक नपा तुला क़दम था जो इँगलेंड और साम्राज्य के हितों पर विचार करने के पश्चात् आगे रखा गया था। इस समझौते में यदि कहीं 'जल्दबाज़ी और उदारता' से काम लिया गया था तो वह भारत की ओर से था। भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के विश्वास पर इस वादे को स्वीकार कर लिया था। उन्हें यह नहीं ज्ञात था कि 'झूठ बोलने की कला' अभी तक चली ही जा रही है। और इस बात की और उनका बिल्कुल ध्यान नहीं गया था कि एक दिन कैथरिन मेयो के समान अँगरेज़ों के स्तुति-गायक लोग उनकी 'राजभक्ति के अत्यधिक प्रकाशन' की दिल्लगी उड़ावेंगे। भारतीयों ने आयलेंड के राष्ट्रवादियों की नीति का कभी अनुसरण नहीं किया, जिनका सदा यह सिद्धान्त रहा है कि 'इँगलेंड की कठिनाई आयर्लेंड का सुअवसर है।' जब जब आवश्कता पड़ी है, भारत ने इँगलेंड का साथ दिया है परन्तु ब्रिटेन इन सुधारों की स्थापना में केवल एक इञ्च दे रहा था, क्योंकि उसे अय था कि कहीं सवा हाथ न देना पड़े। और उसके राजनीतिज्ञ लोग बड़े अच्छे भाव प्रदर्शित कर रहे थे क्योंकि उन्हें भारतीय सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता थी। जहां तक मिस्टर माँटेग्यू का सम्बन्ध था, वे सम्भवतः पूरी सचाई से काम कर रहे थे।

१९१७ की इस घोषणा का भारतवर्ष पर प्रभाव पड़ा। राजनैतिक विचारवाले भारतीय इसकी भाषा और सीमाओं से सन्तुष्ट नहीं थे और उन्होंने अपने असन्तोष को छिपाया भी नहीं। परन्तु जब उन्हें यह मालूम हुआ कि जैसे कनाडानिवासी कनाडा में, आस्ट्रेलियानिवासी आस्ट्रेलिया में, दक्षिणी अफ्रीका में रहनेवाले दक्षिणी अफ्रीका में अपने गृह के स्वामी हैं वैसे ही भारतवासियों के भी अपने गृह के स्वामी बनने के दावे के प्रति इँगलेंड न्याय करना चाहता है तो उन्होंने इसे इस बात के प्रमाण-स्वरूप स्वीकार कर लिया।

अपने वादे को कार्यरूप में परिणत करने के लिए मिस्टर माँटेग्यू भारतवर्ष आये। और तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड की सहायता