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सुधारों की कथा

से उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की। यह रिपेार्ट इन दोनों सज्जनों के नाम से विख्यात हुई। इस घोषणा और रिपोर्ट की समालोचना करते हुए मैंने अपनी 'भारतवर्ष का राजनैतिक भविष्य' नामक पुस्तक में १९१९ ईसवी के आरम्भिक भाग में लिखा था कि[१]:––

"यह स्पष्ट है कि ऊपर की घोषणा में दूसरे पैराग्राफ का दूसरा वाक्य प्रत्येक राष्ट्र के आत्मनिश्चय के मार्ग में घोर बाधक है, यद्यपि आत्मोन्नति की स्वतंत्रता का अधिकार सबको है और अब सिद्धान्त-रूप से यह बात सबके लिए स्वीकार भी की जाती है। (ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के अनुसार युद्ध के पहले जिन उपनिवेशों पर जर्मनी का अधिकार था उनकी काली जातियाँ भी इसी सीमा के अन्तर्गत हैं) भारतवर्ष के लोगों का दर्जा इन जातियों के बराबर भी नहीं समझा गया। यदि यह मान भी लिया जाय कि वे अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि उस अधिकार का पूर्ण और समुचित रूप से पालन कर सके तो यह मान लेना भी उचित नहीं है और न न्यायानुकूल है कि उनकी ऐसी स्थिति कभी होगी ही नहीं। इसके अतिरिक्त उस वाक्य ने जिन योग्यताओं के लिए कहा गया है वे बिल्कुल अनावश्यक और निरर्थक हैं। जब तक भारत 'ब्रिटिश साम्राज्य का एक अभिन्न भाग' बना रहेगा तब तक वह कोई ऐसा विधान नहीं तैयार कर सकता जो अँगरेज़ी पार्लियामेंट और वादशाह के इच्छानुकूल न हो। यह दुःख की बात है कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ समय के साथ नहीं चल सके और ऐसी घोषणा नहीं कर सके जो एकाधिपत्य के अहङ्कार और जातीय अभिमान से रहित हो, और ऐसे समय में जब कि वे साम्राज्य का भार घटाने के लिए और उसकी रक्षा करने के लिए भारतीय पुरुषों से धन और जन की सहायता माँग रहे थे। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के १७९ वे पृष्ट पर जो वक्तव्य दिया गया है वह इस भाव के कुछ प्रतिकूल है। उस स्थान पर इस रिपोर्ट के प्रसिद्ध लेखकों ने, 'आत्म-निश्चय की और बढ़ने की इच्छा के स्वाभाविक विकास का उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'भारतवर्ष की शिक्षित श्रेणियाँ हमारे सामने जो मांगें उपस्थित कर रही हैं वह हमारे सौ वर्ष के कार्य के ठीक और स्वाभाविक परिणाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

"इस घोषणा में इस अनावश्यक सीमा के होते हुए भी यह सर्वधा

सत्य है कि 'इस घोषणा से एक युग का अन्त और एक नवीन युग का आरम्भ होता है। इस घोषणा के महत्त्वपूर्ण होने का कारण, इसमें प्रयोग


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