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सुधारों की कथा

पदार्थों के महत्त्व पर, सरकारी या व्यापारी कार्य्य में लगे अँगरेज़ों की संख्या पर, अपने देश के मनुष्य-समूह-व्यापारी, जहाज़ी, विभाजन-कर्ता, उत्पादनकर्ता और व्ययकर्ता जिनकी उन्नति और सुविधा भारतीय सम्बन्ध पर अवलम्बित है-पर विचार किया जाय तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीय सम्बन्ध के ज़रा भी विच्छेद से इन पर और इनके द्वारा देश के समस्त लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ेगा। भारतवर्ष में हिन्दू राज्य स्थापित होते ही, चाहे वहाँ अशान्ति रहे चाहे शान्ति, अँगरेज़ों की आर्थिक स्थिति में क्रान्ति उत्पन्न हो जायगी।" (मोटे वाक्य हमारे हैं)

कुछ समय हुआ बाल्डविन-शासन-काल के गृह मन्त्री सर विलियम जानसन हिक्स ने बिलकुल इसी प्रकार की भाषा में 'लोकोपयोगी' उद्देश्यों को ख़ारिज कर दिया था। उनके व्याख्यान का इस विषय से सम्बन्ध रखनवाला अंश नीचे दिया जाता है:-

"हमने भारतवर्ष को भारतवासियों के हित के लिए नहीं जीता। मैं जानता हूँ कि ईसाई-धर्म-प्रचारकों की सभाओं में यह कहा जाता है कि हमने भारतवासियों की स्थिति सुधारने के लिए उस देश को जीता था। यह छल-मात्र है। हमने भारतवर्ष को ब्रिटेन का माल बेचने के लिए जीता है। भारतवर्ष को हमने तलवार से जीता है और तलवार से ही हम इसे अपने अधिकार में रक्खेंगे.........मैं ऐसा पाखण्डी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि हम भारतवर्ष पर भारतवासियों के लिए अधिकार किये हुए हैं। हम इसे ब्रिटिश माल की बिक्री का सबसे अच्छा बाज़ार समझ कर अपने वश में किये हुए हैं। साधारण रूप से सब ब्रिटिश वस्तुएँ बेचते हैं और विशेष रूप से लङ्का-शायर का रुई का वस्त्र।"

हमारा यह कहना है और अनेक राष्ट्रवादियों की यही सम्मति है कि सुधारों में जन्म के दोष तो हैं ही वे उस उत्साह के साथ कार्य्यरूप में नहीं परिवर्तित किये गये जिस उत्साह के साथ वे दिये गये थे। इँगलेंड-सरकार और भारत-सरकार दोनों सुधारों के द्वारा जिस भँवर में पड़ गईं थीं उससे