पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/४७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५१
संसार का सङ्कट––भारतवर्ष

डाक्टर पाल एस॰ रीज़च, जिन्होंने अमरीकन सचिव की हैसियत से चीन में काम किया अपनी 'पूर्व में बौद्धिक और राजनैतिक लहरें' नामक पुस्तक में लिखते हैं:––

"भारत की वर्तमान दशा एक सभ्य जाति की राजनैतिक पराधीनता के कुछ दुःखद परिणामों को चित्रित करती है। राजनैतिक बातों में ही नहीं आर्थिक बातों में भी भारतवर्ष को इँगलेंड का गुलाम बना कर रक्खा जाता है। परन्तु वर्तमान परिस्थिति में सबसे बड़ी निराशाजनक बात यह है कि जो लोग स्वभावतः शासन-व्यवस्था में और पुरुषार्थ के कामों में नेता हो सकते हैं उन्हें स्वयं अपने देश में कानूनी अधिकारों के प्रयोग करने का भी अवसर नहीं मिलता। सम्पूर्ण जाति को इस प्रकार मुर्दा बना देना, शान्ति स्थापना के लिए या सुप्रबन्ध के ही लिए यह कार्य क्यों न किया जाय, उस जाति का एक भारी बलिदान करना है। यदि यही नीति जारी रही तो या तो भारत के राष्ट्रीय जीवन का पूर्णरूप से विनाश और अधःपतन हो जायँगा या फिर ब्रिटिश-राज्य का ही अन्त हो जायगा।"

यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि भारतवर्ष बिना ब्रिटिश की सहायता के बाहरी शत्रुओं के आक्रमण से अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यह बात भी निराधार है। स्वतंत्र भारत की सैनिक शक्ति के सम्बन्ध में नीचे हम जनरल सर इयान हैमिल्टन का प्रमाण उद्धृत करते हैं:––

"भारतवर्ष के उत्तर में वह वस्तु है जो अच्छे नेतृत्व में योरप की कृत्रिम समाज को नींव से हिला देने के लिए यथेष्ट और योग्य है––यदि वह एक बार साहस करके उस क्षात्र धर्म का प्रयोग करे जो अकेला उसके सामने धन और धन से ख़रीदी हुई विलासिता से अधिक ऊँचा एक दूसरा आदर्श उपस्थित करता है। केवल वीरता, आत्म-बलिदान और पुरुषार्थ से युद्ध का उद्धार होता है और राष्ट्रीय चरित्र बनता है। ये गुण उन अपवित्र युद्धों में कहाँ देख पड़ते हैं जो राष्ट्रों में व्यापारिक प्रधानता के लिए होते हैं? अब यदि नेताओं की खोज करने का प्रश्न रह जाय तो क्रमशः ज्ञान के प्रसार से वे नेता उत्पन्न हो जायँगे और यदि वे एक बार उत्पन्न हो जायँगे तो इँगलेंड इस विशाल साम्राज्य को ब्रिटिश के ताज के अधीन स्थायी रूप से रखने की कैसे आशा