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अमरप्रकाश


जिनका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं होता—ऐसा कोई बच्चा नहीं जिसे पढ़ना, लिखना और गणित न आता हो? गणित में तो वे निःसन्देह बहुत ही पटु होते हैं......।" (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं)

इसमें सन्देह नहीं कि कम्पनी बहादुर के डाइरेक्टर लोग भारत का पक्ष समर्थन करनेवाले नहीं थे। फिर भी श्रीयुत ए॰ पी॰ हावेल[१] अपनी "१८५४ से पूर्व और १८७०-७१ में ब्रिटिश भारत में शिक्षा" नामक पुस्तक में कम्पनी के कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स की जून १८१४ में भेजी गई शिक्षा-सम्बन्धी प्रथम डाक से ऐसे अवतरण उद्धृत करते हैं जिनसे हमारी प्राचीन शिक्षण-पद्धति की पूर्णता का ज्वलन्त प्रमाण मिलता है और अकस्मात् यह भी बतला देते हैं कि उसका ख़र्च कैसे चलता था। पाठकों को मालूम होगा कि इनमें और मिस मेयो की अज्ञानयुक्त उथली बातों में कितना प्रबल अन्तर है:—

"इस अवसर पर हम विशेष संतोष के साथ उस प्रसिद्ध आन्तरिक सङ्गठन का उल्लेख करते हैं जो भारत के कुछ भागों में प्रचलित है और जो भूमि की उपज पर एक निश्चित कर लगाकर सार्वजनिक शिक्षा का प्रबन्ध करता है तथा गाँव के अध्यापकों को दूसरे प्रकार के दान भी दिलाता है जिससे अध्यापक समाज के सेवक बन कर काम करते हैं।

"इन अध्यापकों की देख-रेख में शिक्षा की जो पद्धति अतीत काल से चली आ रही है उसे इस देश (इँगलैंड) ने मदरास के भूतपूर्व पादरी रेवरेंड डाक्टर बेल की अध्यक्षता में स्वीकार करके सर्वोच्च आदर प्रदान किया है। अब इसी पद्धति के अनुसार हमारी ( इँगलिश) राष्ट्रीय संस्थाओं में शिक्षण-कार्य्य हो रहा है। क्योंकि यहाँ के लोगों को यह विश्वास हो गया है कि यह पद्धति शिक्षा-क्रम को संक्षिप्त करके भाषा सीखने में बड़ी सुविधा प्रदान करती है।

"कहा जाता है कि हिन्दुओं की यह सम्माननीय और सुसङ्गठित संस्था विप्लवों की चोट से बच गई है। इसी के प्रयत्नों का यह फल है कि भारतवासी ख़त-किताबत और मुनामी में बड़े चतुर होते हैं। इसकी महान् उपयोगिता का हम पर ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा है कि हम चाहते हैं कि आप लोग इसकी वर्तमान दशा को शीघ्र समझ लें और अपनी जांच-पड़ताल के


  1. डाक्टर लीटनर द्वारा उद्धृत। वही पुस्तक पृष्ठ—२१,२२