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दुखी भारत


फलों से हमें भी सूचित करें। गांव के अध्यापकों के उचित अधिकारों और स्वत्वों की रक्षा के लिए उन्हें सरकारी सहायता दें और यदि उनमें कोई अधिक गुणी और दक्ष हो तो उसे इस योग्यता के चिह्न स्वरूप कोई अनुकूल सम्मान दें। क्योंकि यद्यपि उनकी स्थिति बहुत निम्नकोटि की प्रतीत होती है, पर यदि उनकी तुलना उन्हीं की स्थितिवाले किसी इस देश के व्यक्ति से की जाय तो पता चलेगा कि सम्पूर्ण भारत में उन अध्यापकों को कितना बड़ा आदर मिलता है।"

इस पर श्रीयुत हावेल निम्नलिखित सम्मति प्रकट करते हैं:—

"इसमें सन्देह नहीं कि अतीतकाल से, जैसा कि यहाँ कहा गया है, ये पाठशालायें चली आ रही हैं। १८३५ ई॰ में केवल बङ्गाल में श्रीयुत आदम ने इन स्कूलों की संख्या १,००,००० तक अनुमान की थी। मदरास में सन् १८२२ ईसवी में सर टामस मुनरो ने इस सम्बन्ध में एक जाँच-समिति नियत की थी। उसने १२,४९८ पाठशालाओं की सूचना दी थी जिनमें १,८८,६५० विद्यार्थी शिक्षा-लाभ करते थे। उन्हीं दिनों बम्बई में भी सम्पूर्ण प्रान्त में उसी प्रकार की पाठशालाएँ पाई गई थीं। यह अत्यन्त दुःख की बात है कि जब प्रत्येक प्रान्त हमारे अधिकार में आया और लोगों में हमारी जीत की धाक जमी तथा उनके हृदयों में युद्ध और दमन से मुक्ति मिलने के लिए हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा हुआ, तब हमने ग्राम्य पाठशालाओं को ग्राम्य शासन-प्रणाली का जो हमें सर्वत्र सुरक्षित रूप में प्राप्त हुई थी, एक आवश्यक अङ्ग बनाकर उस अवसर से लाभ नहीं उठाया।"

कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स की शिक्षा-सम्बन्धी डाक से लिये गये अवतरण का दूसरा पैराग्राफ़ विशेष ध्यान देने योग्य है। डाक्टर लीटनर कहते हैं:— "जिस प्रकार भारतीय कला-कौशल के नमूने देखकर वर्तमान अँगरेज़ कारीगरों की कला-सम्बन्धी रुचि विकसित हुई है उसी प्रकार भारत की प्राचीन शिक्षण-पद्धति से इँगलैंड के स्कूल भी प्रभावित हुए हैं।[१]

बङ्गाल का एक स्कूल-निरीक्षक जो १८६८ ई॰ में पञ्जाब के स्कूल देखने के लिए भेजा गया था अपनी रिपोर्ट में एक स्थान पर लिखता है:—

"भारत की इस प्राचीन शिक्षण-पद्धति का निर्माण शास्त्रों के आज्ञानुसार हुआ था, इसी से इसमें धार्मिक कर्त्तव्यों की प्रधानता तथा जीवन के


  1. वही पुस्तक, पृष्ठ २०